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दरार

 

लॉन में अख़बार पढ़ते हुए निलेश से रंजना ने पूछा था . . .

“क्या तुम चाय पीना चाहोगे? . . . 

“मैं अपने लिए बनाने जा रही थी। सोचा एकबार तुमसे भी पूछ लेती हूँ।वरना मेरी शिकायतों के पुलिंदे में एक और बढ़ोतरी हो जाएगी।”

नीलेश ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा, “नहीं पीनी मुझे! एहसान कर रही हो . . .? 

“मन होते हुए भी नहीं पीना चाहता। ये तुम्हारी रोज़-रोज़ की जली-कटी सुनकर किसका स्वाद भाएगा मुझे?”

रंजना घूरते हुए वापस मुड़ गई। रसोई घर से उठती चाय की सुगंध ने निलेश की चाय पीने की तलब बढ़ा दी। कहे भी तो कैसे . . .? 

अहं के टकराहट से उन दोनों के बीच लगातार दरारें बढ़ती जा रही थीं। 

चाय की ट्रे लिए रंजना को अपनी ओर आता देख वह हैरान था। उसे लगा उसके सामने अकेले चाय पीकर वह उसे जलाना चाहती है पर उसकी सोच ग़लत निकली। 

निलेश की ओर कप बढ़ाते हुए रंजना ने कहा, “हम लोग आजकल एक-दूसरे के लिए जैसा सोचते हैं अगर उसका उल्टा किया जाए तो कैसा रहेगा . . .?” 

“रंजना! फिर दरार ही पट जाएगी।” 

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