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हरी दूब

“अरे तुम ख़ाली हाथ आए हो . . .? 

“काम कैसे करोगे? देख रहे हो कितनी घास उग आई है इन ईंटों के बीच?” 

“हम कर देंगे साहब, ये मेरे दो हाथ है न! . . . हमारा तो यही औज़ार है। कोशिश करेंगे ज़्यादा से ज़्यादा हो जाए।” 

“देख लो! . . . मैं दिन के हिसाब से मज़दूरी नहीं दूँगा। पूरा देख कर बताओ कितना लोगे सफ़ाई करने का। ठेका ही समझो।” 

“साहब! . . . जितना है हफ़्ता भर लग जाएगा। आप ही हिसाब लगा लीजिए कितना होना चाहिए?” 

“एक दिन के चार सौ रुपये होते है, उसी हिसाब सेऽऽऽ . . .!” 

“ढाई हज़ार दे दीजिए . . . कर दूँगा।” 

“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब है क्या . . . इतना पैसा! पन्द्रह सौ ठीक है। बिना कचिया, कुदाली काम करोगे तो ज़्यादा दिन लगेंगे ही। ख़रीदना चाहिए था सामान।” 

“अब साहब! . . . इन मज़दूरी के पैसों से पाँच लोगों का पेट भरें या सामान ख़रीदें। ठीक है साहब! . . . जैसी आपकी मर्ज़ी। लेकिन खाना तो खिला देंगे न?” 

“खानाऽऽऽ . . .? 

“हाँ साहब! . . . खाना, एक पेट का पैसा तो बचेगा।” 

ना चाहते हुए भी मना नहींं कर पाया . . . “चलो ठीक है . . . पर काम ईमानदारी से करना।” 

“आप चिंता मत करिए साहब! . . . यही तो एक चीज़ हमारे पास है। अपनी तरफ़ से जितना ज़्यादा हो पाएगा, करता जाऊँगा।” 

“हम्म! . . . ख़ाक करोगे तुम ज़्यादा से ज़्यादा। चलो लग जाओ काम पर। 

“हमारे यहाँ मेहमान आने वाले हैं इसलिए ज़रूरी है थोड़ी साफ़-सफ़ाई। नहींं तो मैं काम नहींं कराता।” 

“पूरी तरह से साफ़ करना है! . . . समझे, इन घासों को ज़मीन से उखाड़ फेंकना। ताकि कम उगें। 

“कितना भी साफ़ कराओ, पता नहीं कहाँ से इनको पोषण मिलता है। एकदम लहलहाती रहतीं हैं।” 

मज़दूर के होंठों पर एक मुस्कान तैर गई . . . “हमारी ज़िन्दगी भी तो लगभग ऐसी ही है।” 

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