अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

चक्करघिन्नी 

मालिनी रोज़ की तरह ऑफ़िस जाने के लिए निकलती। रास्ते में पड़ने वाली ईंट के भठ्ठे में काम करती हुई महिलाओं को ग़ौर से देखती। 

बदन पर चिपके ईंटों के चूरे से आती चमक और पसीने से लथपथ पूरा शरीर, पीठ में बच्चे को बाँधे कितनी कुशलता से एक पर एक ईंट रखती है। 

मालिनी का कलेजा मुँह को आ जाता ये सोचकर कि ज़रा सा भी फिसली तो बच्चे का क्या हो जाए। पर मजाल है कि थोड़ी सी भी चूक की गुंजाइश हो। 

“उफ्फ!। किसी दीवार से कम नहीं हैं ये। समाज क्यूँ नहीं स्वीकारता अपने बराबर में इस जीवट देह को। उतनी ही भार की ईंटों को ढोने वाले पुरुष को ज़्यादा पैसे मिलते हैं। ये कहाँ का इंसाफ़ है . . .? कमज़ोर, कमज़ोर कहने वालो, ज़रा देखो तो! पेट और पीठ पर कैसा भार ढोती है। कभी पेट पर भार बाँध कर चलना औरत के क़दम से क़दम मिलाकर। नहीं चल पाओगे, ये तय है। अंधे कहीं के!”

रास्ते भर मन खट्टा हो रहता। आख़िर उसे क्यूँ फ़र्क़ पड़ता है इतना, वो तो पढ़ी-लिखी है। अच्छे से ओहदे पर है, अपना अच्छा-बुरा सोचने को स्वतंत्र है। 

एक मुस्कान होंठों पर तैर गई . . . कुछ भी तो अलग नहीं हैं औरतों के मसले। क्या-कुछ नहीं ढोना पड़ता है इसके अलावे। उतार फेंकना भी सम्भव नहीं। 

वो हाशिए पर रहती है और मैंऽऽऽ . . .

हम दोनों ही चक्करघिन्नी सी नाचते रहते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं