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महँगा तोहफ़ा

“अजी सुनो! . . . वो मेरी चचेरी बहन की बेटी की शादी होने वाली है। जिनका बड़ा सा कारोबार है।”

“अच्छा! . . . कब है बताओ! तो टिकट अभी ही बनवा लेता हूँ। शादी के मौसम मेंं ट्रेन मेंं सीट आरक्षित नहींं मिल पाती है। और हाँ, ख़रीददारी के लिए लिस्ट भी बनाना शुरू कर दो। एक-दो दिन के बाद बाज़ार चलेंगे। कुछ अच्छा सा ले लेंगे . . . हम लोग रिश्तेदार हैं तो लगना भी चाहिए।”

“अरे नहींं! . . . कुछ महँगा क्यूँ लेना . . .? 

“मैंने वो साड़ी अभी तक रखी है न . . . जो उनके यहाँ से मुझे मिली थी, वही दे देंगें।”

“जैसी तुम्हारी मर्ज़ी! . . . पर क्या ये ठीक रहेगा जो उनके यहाँ से मिली फिर उनको वही लौटाई जाए।” 

“अरे भई! . . . कौन सी उनको या उनकी बेटी को पहननी है। लेने-देने के काम आ जाएगी।” 

पैकिंग करती पत्नी को क़लम से कुछ करते देख पति ने पूछ ही लिया . . . 

“ये क्या कर रही हो . . .? दो हज़ार की साड़ी को तीन हज़ार का बना दिया।”

“तुम नहींं समझोगे . . . जब दूँगी तो सब दाम ही देखेगें। तोहफ़ा कितना महँगा है ये मायने रखता है पहली नज़र मेंं। इसलिए ये सब दुनियादारी मेंं करना पड़ता है।”

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