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फ़ैसला

दो गुटों के बीच हुई मारपीट और तोड़-फोड़ के मामले मेंं रमाशंकर के साथ-साथ माधव को भी पुलिस पकड़ लाई। 

दोनों की ठेले पर दुकान सजती थी . . . आसपास जगह कम होने की वजह से लोग कभी-कभी उलझ जाते थे। 

उस दिन क्या बात हुई जो भीड़ आपस मेंं लड़ बैठी, पता नहीं . . .! 

हालाँकि ग़लती पूरी तरह किसकी थी और झगड़े की क्या वजह रही पुलिस के पल्ले भी नहीं पड़ी। 

पुलिस की भनक लगते ही तीन हिस्से भीड़ ग़ायब थी। 

‘इससे हमको करना भी क्या है? ऐसे फ़साद तो होते रहते हैं। यही तो कमाई का मौक़ा होता है,’ यही सोचकर दरोगा ने कड़क आवाज़ मेंं उन दोनों को कहा . . . “आपस मेंं समझौता कर लो, और ले-देकर निबटान करो।”

“हमने जब कुछ किया ही नहीं तो कैसा लेन-देन और कैसा समझौता . . .?” 

“इस फ़साद का कारण तो हो . . . न ठेले होते न लोग आते!” 

“हवलदार!। डाल दो इन दोनों को लॉक-अप मेंं . . . कुछ देर रहेंगे तो अक़्ल ठिकाने आ जाएगी।” 

माधव दरोगा जी की बातों में आ गया . . . हँसते हुआ बाहर आ गया। 

बेचारा रमाशंकर ईमानदारी की लड़ाई लड़ना चाहता था और लड़ा भी। पाँच वर्ष लग गये अपने आप को सही साबित करने मेंं। 

कोर्ट परिसर से बाहर निकलते ही दरोगा जी सामने नतमस्तक हो गया। 

“काश! . . . आप की बात मानी होती तो ये पाँच वर्ष व्यर्थ न जाते।” 

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