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बेदम

 

बहुत दिनों से ऑफ़िस के चक्कर काट-काट हरे राम जी परेशान हो गए थे। बड़े बाबू के पद से सेवानिवृति के बाद परिवार के ख़र्च का बोझ पेशानी पर अक़्सर चमक ही जाता। 

बेटे को आगे पढ़ाना, बेटी की शादी सब कुछ तो बाक़ी ही था। पेंशन की रक़म चालू हो जाती तो बिटिया के लिए घर-वर ढूँढ़ने निकलते। 

रोज़-रोज़ ऑफ़िस के चक्कर लगाते देख चपरासी विनोद बोल पड़ा, “बड़ा बाबू ये आपका समय नहीं है। कुछ ले-देकर अपना काम करवा लीजिए। आपका यूँ रोज़-रोज़ परेशान होना अच्छा नहीं लगता।”

“विनोद! . . . मैंने हमेशा ईमानदारी से काम किया है और यही मेरी पहचान भी थी। लोग मेरे पास बड़ी उम्मीद से आते थे। मुझे क्या पता था कि एक दिन मुझे मेरे ही पैसों की ख़ातिर तेल लगाने पड़ेंगे।”

“बड़ा बाबू! . . . मामला तेल का है और यह कितनी ज़रूरी चीज़ है ये आप-हम अच्छी तरह जानते हैं। एक-दूसरे की गाड़ी चलाने के लिए तेल लगाना ही पड़ता है। महँगाई ने बेदम जो कर रखा है।”

“विनोद! . . . काश! मैं भी इतनी गहराई से कभी सोचता तो इतना बेदम न होता।” 

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