पनहारी
काव्य साहित्य | कविता निहाल सिंह15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
नाज़ुक पाॅंवों से लिपटकर
चलती है धोरों की क्यारी,
दूर कहीं गीत बिरहा के
गाती जाऊँ मैं पनहारी।
टूटी-फूटी पगडंडियों
पर चालू लेकर अंगड़ाई,
पिछले पथ पर ही छोड़कर
आई मैं अपनी परछाईं॥
गोरी-गोरी कलाई में
खनके हैं चुड़ियाँ कॅंवारी,
दूर कहीं बिरहा के गीत
गाती जाऊँ मैं पनहारी।
पूस के दिन हों या हों फिर
तप्त खरसा की दोपहरी,
तरणि की किरणें बन जातीं
हैं मेरे बदन की छतरी॥
संग-संग पवन के उड़ती
जाएँ ये चुनर मतवारी,
दूर कही बिरहा के गीत
गाती जाऊँ मैं पनहारी॥
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