वक़्त का खेल
काव्य साहित्य | कविता मुनीष भाटिया1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
तक़दीर और मेहनत की जंग में,
कौन है बलवान . . .?
ये तो वक़्त ही करता है,
हर राज़ का ऐलान।
कभी मेहनत हार जाती है,
और क़िस्मत मुस्कुराती है,
कभी पसीना रंग लाता है,
और तक़दीर झुक जाती है।
कामयाबी मेहनत से मिलती है,
ये शाश्वत सत्य रहा जग में,
पर क़िस्मत की चालें,
अक्सर कर देतीं वार।
कभी ये जुए जैसा खेल,
कभी ताश के पत्ते हैं,
आज विजय का ताज है गर
तो कल बदल सकती हैं राहें।
समय के संग जो चलता है,
वही चतुर कहलाता है,
कभी समझौता, कभी लड़ाई,
यह जीवन सिखाता है।
समय न किसी का होता,
न ये किसी का रहता है,
जो इसके संग बहता जाए,
वही मंज़िल को पाता है।
अंत में न क़िस्मत है जीतती,
न मेहनत की जय होती,
वही जीतता है जो हालातों से
जूझने की हिम्मत है रखता।
मिट्टी में दबे बीज भी
वटवृक्ष बन जाते हैं,
अगर धूप और पानी
सही समय में पाते हैं।
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