इत्मिनान
काव्य साहित्य | कविता मुनीष भाटिया1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कोई गिला रहा नहीं,
न कोई शिकवा अब है।
ज़िंदगी में आए इत्मिनान तो
हो जाए गुम हर डर है।
जीना कठिन था सही,
पर हौसलों से राह बन गई।
थकी हुई रूह को भी
फिर से ऊर्जा मिल गई।
साँस अब बोझ नहीं,
ज़िंदगी अवसर नए बनाती है।
हर सुबह की धूप में उम्मीद
फिर से खिलखिलाती है।
दुनिया के रंग बहुत देखे,
हर रंग में स्याही थी।
जलती रूहों ने तपिश भी ली,
हर चाह आह से बँधी थी।
कब कौन अनजाना
सहारा बन जाए,
कौन अपना दग़ा दे जाए,
जीवन की राहें उलझी बड़ी।
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