लापता इंसान
काव्य साहित्य | कविता मुनीष भाटिया15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
हवा का रुख़ जिधर,
उधर झुके इंसान,
अपने ही चेहरे पे
ओढ़े कितने प्रमाण।
सच के ऊपर जमी हैं
झूठ की परतें,
चेहरों के पीछे थमी
कहानियाँ कितनी।
हम जैसे हैं,
वैसे अब दिखते नहीं,
जो दिखते हैं वो
असल में होते नहीं।
दुनिया की भीड़ में
खोया हर इंसान,
अपने ही अस्तित्व से
जैसे गुमनाम।
हर शाख़ पर लटकती
लापता पहचान,
हर मन में उठ रहा
एक मौन तूफ़ान।
मुखौटों की भीड़ में
मर गई सच्चाई,
झूठ की चादर में
ढक गई दुनिया सारी।
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