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विराट स्वरूप में

हे! मधुसूदन
कुरुक्षेत्र के 
दिव्यज्ञान में,
नहीं थी
भूख की परिभाषा 
जिसकी करनी पड़ेगी
खोज इस 
निर्मम धरती पर 
तड़पती झोपड़ियों की ओर


विराट स्वरूप में 
मुख से निकली ज्वालाएँ
नहीं स्पर्श कर पायीं थीं मुझे
जिससे भस्म कर सकूँ
अबलाओं की आह! को
जो जल रही है अनवरत


उस कौरव सेना में
आतंक की कितनी 
पराकाष्ठा थी?
जिसका जबाव 
माँगती हैं 
शहीदों की हुतात्माएँ
और उनकी अर्द्धांगिनियाँ
आँसुओं का समंदर बहाकर 


और..….
धर्मोपदेश में 
नहीं थी 
आतंकवाद
की निकृष्ट परिभाषा!
जिसका जबाव चाहता है
आज का त्रस्त मानव।


विराट स्वरूप में जितना 
विचलित नहीं था मैं,
उतना हो रहा हूँ 
आज। बोलो पार्थसारथी
मैं अर्जुन बनूँ या अर्जित शक्ति
इस कलियुग की।

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