माँ
कथा साहित्य | कहानी कृष्णा वर्मा23 Feb 2019
कुर्सी पर बैठी मानवी परेशान चित्त सी अपने से ही बुड़बुड़ा रही थी। सास होती तो मैं समझ सकती कि उसे मेरी क्या परवाह है मगर माँ कब से ऐसी हो गई? माँ तो हमेशा ही मेरी छोटी से छोटी बात का ध्यान रखती रही है। आज माँ को हुआ क्या जो सुबह-सुबह घर से चली गई?
रसोईघर से भी आज सुबह-सुबह खटर-पटर की आवाज़ आ रही थी। मैं जागी-सोई सी अवस्था में सोच रही थी कि माँ आज इतनी सुबह क्या कर रही है। फिर सोचा शायद मंदिर जाने का मन कर आया हो क्योंकि पिछले कई हफ्तों से बीमार जो चल रही थी, मन भी तो उकता जाता है घर पड़े-पड़े। बस सोचते-सोचते फिर मेरी आँख लग गई।
तन्वी की तकलीफ़ की वज़ह से सो कहाँ पाई थी मैं रातभर। सुबह मेरी आँख खुलने में देर हो गई। उठते ही घर में देखा तो माँ थी नहीं सोचा अभी आती होगी मंदिर से। इंतज़ार करते-करते दोपहर हो गई माँ तो अभी लौटी ही नहीं। झुंझलाहट के साथ-साथ फिक्र भी होने लगी, माँ गई तो गई कहाँ। इतनी देर लगा दी, बैठ गई होगी किसी से बातें करने। क्या उसे नहीं पता पिछली तीन रातों से मैं तन्वी की तकलीफ़ की वज़ह से ठीक से सो नहीं पा रही। पूरे बदन पे लाल चकत्तों ने परेशान कर रखा है बच्ची को। कोई दवा भी तो असर नहीं कर रही। अच्छी आई भारत, आते ही गर्मी ने धर दबोचा। चार दिन ही हुए मुश्किल से आए और घेर लिया तकलीफ ने।
जब से माँ की बीमारी का सुना था बड़ा बेचैन था मन मिलने को। दिन-रात सोचती रहती थी कितनी बँधी हूँ यहाँ, अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों में। माँ अकेली कैसे अपना ध्यान रख पाती होगी बीमारी में। कैनेडा की जगह यदि पास के शहर में ब्याही होती मैं तो ज़रूरत पड़ने पर देख-भाल तो कर पाती। मृदुल को भी अमरीका ब्याह दिया। क्या पता था माँ को कि दोनों बेटियों को विदेश ब्याह कर जल्दी ही इतनी अकेली हो जाएगी। दो बरस पहले ही पापा का देहान्त अचानक दिल के दौरे से हो गया। जब से पापा नहीं रहे माँ ने जैसे दिल ही छोड़ दिया है और तबीयत भी ढीली ही रहने लगी है। आसान भी कहाँ होती है पिछली उम्र अकेले गुज़ारना?
मैं भी क्या करती समय से देख-भाल करने कैसे आती? स्कूल की नौकरी है ही ऐसी - छुट्टियाँ भी तो जून में ही होती हैं। माँ से मिलने की तड़प ने कुछ सोचने ना दिया और छुट्टियाँ होते ही मैं तन्वी को लेकर कुछ दिनों के लिए भारत आ गई। ऐसा नहीं कि तन्वी पहले भारत आई ही नहीं, तीन बरस की थी जब पापा का देहान्त हुआ। सर्दी का मौसम था तो सब ठीक ही रहा था। तन्वी उस रोज़ दोपहर को आँगन में ना निकलती तो यह हालत ना होती। आँगन में माँ ने एक छोटा सा बगीचा लगा रखा है। रंग-बिरंगे फूलों पर उड़ती तितली को देखने के मोह ने तन्वी को धूप का एहसास ना होने दिया। उसे ख़ुश देखकर मैं भी ख़ुश थी, इस ओर ध्यान ही ना गया कि तन्वी पर ज़रा देर की धूप इस तरह से हावी हो जाएगी। बस उसी दिन से उसके बदन पर लाल चकत्ते हो गए, खुजली से परेशान ना वह रातभर सो पाती है ना मैं।
मन ही मन मानवी खीझ रही थी यदि माँ घर रहती तो तन्वी के पास बैठ जाती और मैं ज़रा सोकर सर का भारीपन तो कम कर लेती - पर कहाँ।
इतने में ही घर का ताला खुलने की आवाज़ आई तो वह भाग कर दरवाज़े की ओर पहुँची देखा तो माँ आ गई। खीझी तो पड़ी ही थी आते ही माँ पर बिगड़ने लगी कहाँ चली गईं थी तुम सुबह से ना कुछ कहा ना बताया। तुम्हें नहीं लगा कि मैं कितनी परेशान हो जाऊँगी। तुमने तो इतना भी ना सोचा कि ज़रा तन्वी का ख्याल ही रख लूँ ताकि मानवी कुछ देर आराम करले। मानवी गुस्से में बोलती चली जा रही थी।
थकी-मांदी माँ ने सहजता से कहा, "बेटा ज़रा भीतर तो आ जाने दे ज़रा साँस ले लूँ फिर जो चाहे कह लेना।"
मानवी को अपनी गल्ती का एहसास हुआ तो बोली, "हाँ-हाँ आओ अंदर," और जाकर पानी का गिलास भी ले आई। माँ को पानी का गिलास थमा फिर से शिकायत का पुलंदा खोल बैठी। माँ सब सुनती रही और चुप-चाप थैले से साबुन की टिकियाँ और मरहम की डिबिया निकाल कर मानवी की और बढ़ा कर बोली-
"बेटा फूल सी तन्वी का दु:ख मुझ से देखा नहीं जा रहा था इसलिए सुबह-सुबह शहर वाले हकीम के पास दवा लेने चली गई थी। जब तू और मृदल छोटी थी तो तेरी नानी इसी हकीम की देसी दवा ही दिया करती थी। बहुत पुराना जाना-माना हकीम है। मैं तो सालों से कभी उस ओर गई ही नहीं। अब तो दिल्ली का नक्शा ही बदल गया है कहीं मैट्रो चलने लगी है तो कहीं पुल बन गए हैं। बसों के आने-जाने के ठिकाने भी बदल गए हैं, बस लोगों से पूछ-पाछ के किसी तरह हकीम की दुकान पर पहुँच ही गई। इन्हीं चक्करों में थोड़ी देर हो गई आने में। और यदि तुझे बता कर जाती तो क्या तू जाने देती मुझे? नहीं ना, बस इसीलिए तो नहीं बताया था तुझे।"
मानवी और भी गुस्सा गई – "क्यों गईं तुम? तुम्हें अपनी हालत का अंदाज़ा है कुछ? अभी-अभी तो बीमारी से उठी हो यदि तुम्हें इस गर्मी में कुछ हो जाता तो?"
"अरे तू मेरी चिन्ता छोड़ तन्वी से अधिक ज़रूरी तो नहीं मेरी सेहत।"
यह सब सुन मानवी की आवाज़ रुँध गई बोली, "माँ, हमें तुम्हारी कितनी ज़रूरत है तुम समझती क्यों नहीं हो।"
"अच्छा छोड़ सब यह बता तूने और तन्वी ने कुछ खाया? मैं सुबह तुम दोनों के लिए खाना बना के गई थी। मुझे तेरी परेशानी और थकान का एहसास है मानवी।"
"नहीं माँ मैं रसोई की ओर तो गई ही नहीं, तन्वी ने कुछ बिस्कुट खा लिए थे और उसे कुछ खाने की इच्छा नहीं थी और मैं तो गुस्से से ही भुनभुनाती रही मुझे क्या मालूम था कि तुम हमारे लिए इतना सोचती हो। किसी तरह तन्वी ठीक हो जाए उसके लिए तुम गर्मी की परवाह किए बिना कमज़ोरी की हालत में बसों के धक्के खाती इतनी दूर दवाई लेने चलीं गईं और मैंने तुम्हारे लिए ज़रा सी देर में क्या-क्या सोच लिया।"
मानवी की रुँधी आवाज़ आँसुओं में ढल गई। ज़मीन पर बैठ माँ के घुटनों पर सर रख मानवी अविरल आँसू बहाती रही।
"माँ मुझे माफ कर दो मैनें अपने स्वार्थवश पता नहीं तुम्हारे लिए क्या सोच लिया। माँ मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई।"
माँ बिना कुछ बोले मानवी की पीठ सहलाती रही।
"एक बार कह दो माँ कि तुमने मुझे माफ किया वरना कैसे जी पाऊँगी मैं," और लगातार सुबकती रही।
माँ ने प्यार से माथा चूम सर पर हाथ रख सीने से लगा लिया। मानवी फिर से जी उठी। माँ को कस के बाहों में भींच के बोली, "माँ... माँ ऐसी क्यों होती है?"
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