औक़ात
कथा साहित्य | लघुकथा कृष्णा वर्मा1 Mar 2019
भारी क़दमों से नन्दन घर घुसा, बस्ता एक ओर रख कर घुटनों में मुँह देकर कोने में बैठ गया। माँ ने बड़ा लडियाते हुए रसोईघर से उसे पुकारा, "आजा नन्दन चाय पी ले मेरे लाल। देख आज तेरे लिए तेरे मनपसंद बिस्कुट भी लाई हूँ।"
कुछ देर इंतज़ार करने पर भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो माँ उठ कर उसे कमरे में बुलाने गई। उसे यूँ उदास बैठा देखकर प्यार से बोली, "क्या हुआ बिटवा ऐसे उदास क्यों बैठा है। मास्टर जी ने कुछ कहा क्या?”
अनमना सा नन्दन बोला, "नहीं माँ!”
तो फिर ऐसे घुटनों में मुँह दिए क्यों बैठा है?”
उदास नज़रों से माँ को ताकते हुए नन्दन ने पूछा, “माँ औक़ात क्या होती है?"
माँ हैरान हो गई, “औक़ात?” फिर उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली, "भला तू यह क्यों पूछ रहा है?”
रुआँसी आवाज़ में नन्दन बोला, "आज कुछ लड़कों ने मुझे अपने साथ नहीं खेलने दिया और यह कह-कह कर बहुत चिढ़ाया कि तेरी औक़ात ही क्या है, एक मिट्टी के ढेले जितनी।"
उदास बेटे के मुँह से यह बात सुन कर माँ का कलेजा दुख से फट गया। आँखें मीच कर दुख के घूँट भरते हुए वह बोली, "छोड़ बेटा, इन बेकार की बातों पर ध्यान न दे, बस तू ख़ूब मन लगा कर पढ़ाई कर। इन लड़कों की बातों को यूँ मन पर मत ले।"
"क्यों माँ?” बरसती हुई आँखों से नन्दन ने पूछा, "क्या ग़रीबों का दिल नहीं होता, यह ग़रीबी खेल के आड़े भी क्यों आ जाती है?”
बेबसी से फटी अपनी छाती से बेटे को भींचते हुए माँ बोली, "बेटा तू केवल पढ़ाई को ही अपना एकमात्र लक्ष्य बना ले। फिर देखना यह माटी का ढेला कैसे दीपक बन कर जीवन के सब अंधकार चीर देगा। उस दिन उन लड़कों को ख़ुद ही पता चल जाएगा माटी का मोल और तुझे औक़ात का मतलब।"
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