तिलक
कथा साहित्य | लघुकथा कृष्णा वर्मा23 Feb 2019
जंगल से शाम ढले बचुआ कांधे पर कुल्हाड़ी उठाए अपने घर की ओर आ रहा था। रास्ते में उसके ही गाँव का एक व्यक्ति मिला। "अरे! बचुआ इस समय यहाँ कहाँ से आ रहे हो? और माथे पर यह चन्दन का तिलक, आज कुछ ख़ास बात है क्या?”
हल्की सी मुस्कान बिखेरते बचुआ ने कहा, "कुछ ख़ास नहीं काका। आज जंगल काटने का काम मिला था, बस वहीं से दिहाड़ी कर के लौट रहा हूँ।"
"और यह तिलक?”
"रास्ते में एक छोटा सा मंदिर दिखा तो भगवान को प्रणाम करने चला गया और पुजारी जी ने यह तिलक लगा दिया।" प्रसाद वाली हथेली आगे करता हुआ बचुआ बोला, “यह लो काका, तुम भी प्रसाद खा कर अपना जन्म सफल कर लो।"
प्रसाद लेते हुए काका ने पूछा, "क्या तुम माथे पर तिलक का महत्व जानते हो?”
“भला कौन हिन्दु इसकी महत्ता नहीं जानता! इसके लगाने से तो सब पाप कट जाते हैं।"
"हूँ! तुम्हें तो आज इस तिलक की परम आवश्यकता थी।"
“पर वो क्यूँ काका?”
"क्योंकि, हिन्दू धर्म तो, किसी का ख़ून करने में विश्वास ही नहीं करता। और तुमने तो आज कितने ही परोपकारी पेड़ों का ख़ून जो कर दिया है।"
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