क़ीमत
कथा साहित्य | लघुकथा कृष्णा वर्मा1 May 2019
आँगन से ही पुकार लगाती भीतर भागती हुई तारा ने लगभग चिल्लाते हुए कहा, "माँ देखो कौन आया है।"
माँ कमरे में कपड़े सहेजते हुए पूछा, "अरे कौन आ गया जो इस तरह से घर को सर पर उठा रही है?”
आवाज़ में ख़ुशी सींचती हुई तारा बोली, "माँ रजनी जीजी आई हैं।"
सुनते ही माँ को जैसे पंख से लग गए। उड़ती हुई सी कमरे से बाहर आई, बिटिया को देख कर नम आँखों से हृदय से लगा लिया। दोनों की धड़कनें यूँ धड़क रही थीं जैसे एक-दूजे को मन का हाल बता रही हों। इतने दिनों बाद बिटिया… बीच में ही माँ की बात काटते हुए तारा बोली, "लगता है ससुराल का सुख-आराम रास आ गया है जीजी को।"
लाड जताते हुए बड़े प्यार से बेटी के कांधों को पकड़ कर माँ ने कहा, "बैठ तो सही रजनी, यूँ परायों की तरह क्यों खड़ी है बिटिया? अरे तारा! जा तो ज़रा जीजी के लिए गरमा-गरम अदरक वाली चाय तो लेकर आ और कुछ खाने के लिए भी।" बेटी के हाथ अपने हाथ में लेते हुए माँ ने पूछा, "यह क्या बिटिया रुई से नरम हाथ इतने खुरदरे कैसे हो गए, कितना दुबला गई है तू, रंग-रूप भी बिगड़ गया, अपना ध्यान नहीं रखती क्या?"
"अपना ध्यान! कैसे रख सकती हूँ माँ। ऊँचे घर में जो ब्याहा है आपने, क़ीमत तो चुकानी पड़ेगी ना,” तारा की आँखें पनीली थीं।
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