अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वादा 

 

सुबह-सवेरे स्कूल के लिए तैयार होकर नितिन और निधि पापा के पास आए। 

एक ही स्वर में बोले, “पापा याद है ना आज कौन सी तारीख़ है?” 

हँसते हुए पापा ने कहा, “हाँ-हाँ सब याद है बेटा, आज पहली तारीख़ है और तुमसे किया वादा भी याद है। चलो अब जल्दी से जाओ, तुम्हारी बस के आने का समय हो गया है।” 

पति को चाय का कप पकड़ाते हुए माँ ने कहा, “यह लीजिए, मैं ज़रा बच्चों को गेट तक छोड़ आऊँ।”

“बॉय मम्मी,” बस की सीढ़ी पर पाँव रखते हुए दोनों ने फिर दोहराया, “मम्मी आप भी पापा को दोबारा याद दिला देना, शाम को हमारी चीज़ें लेकर आएँ।” 

“हाँ-हाँ दिला दूँगी याद, मन लगाकर पढ़ना।” 

बच्चे बड़ी उत्सुकता से शाम होने की इंतज़ार करते रहे। 

उधर रास्ते भर परेशान प्रणय सोचता आ रहा था कैसे सामना करूँगा बच्चों का। कैसे बताऊँगा कर्ज़दारों ने आज ऐसा घेरा कि घर के राशन, स्कूल की फ़ीस और बिजली के बिल तक भरने के पैसे नहीं बचे। 

बुझे मन और भारी क़दमों से कैसे प्रणय घर तक आया वही जानता है। 

जैसे ही दरवाज़े की घंटी बजी, दोनों बच्चों के चेहरे ख़ुशी से खिल गए। 

दोनों भागते हुए जब तक दरवाज़ा खोलने पहुँचे तब तक मम्मी ने दरवाज़ा खोल दिया था। 

पापा के ख़ाली हाथ और उदास आँखें देखकर झट से बच्चे मुस्कुरा दिए और उस क्षण प्रणय को लगा जैसे वह मर गया। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

लघुकथा

कविता-सेदोका

कविता

सिनेमा चर्चा

कहानी

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

कविता-माहिया

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. अम्बर बाँचे पाती