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वोट

 

चुनाव प्रचार ज़ोरों पर था। अपने-अपने क्षेत्रों के उम्मीदवारों के चुनाव चिह्न लिए लोग नारेबाज़ी करते फिर रहे थे। जगह-जगह भाषण चल रहे थे। हमारे क्षेत्र से अर्चना जी भी चुनाव लड़ रही थीं। 

हमारी कॉलोनी के एक सिरे पर बिजलीघर था जिसकी दीवार हमेशा इश्तिहारों से भरी रहती थी। और उसकी बग़ल में ही एक बड़ा सा खेल का मैदान था। 

मैदान के एक सिरे पर अर्चना जी का और दूजे सिरे पर किसी पुरुष उम्मीदवार का भाषण चल रहा था। व्यवहार कुशल अर्चना जी समाजिक कार्यों में रुचि रखने वाली महिला थीं। अपनी कॉलोनी के अलावा आसपास की कॉलोनियों के लोग भी उन्हें बहुत पसंद करते थे। शायद इसीलिए भारी संख्या में लोग उनका भाषण सुनने को जुड़े थे। 

भाषण समाप्त हुआ नहीं कि अर्चना जी के पंडाल के बाहर टीवी चैनल वालों ने कुछ लोगों को घेर कर चुनाव के विषय में उनके विचार जानने चाहे। लोग अपने-अपने विचार साझे कर रहे थे कि इसी बीच एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति दूसरी ओर का भाषण सुन कर इस ओर जुटी भीड़ में आ खड़ा हुआ। चैनल वालों ने छूटते ही उससे प्रश्न किया कि आपकी वोट किसे मिलने वाली है, पुरुष उम्मीदवार या महिला उम्मीदवार को? 

प्रश्न सुनते ही वह मुस्कुराते हुए व्यंग्य शैली में बोला . . . “ज़ाहिर है साहब, अपना वोट मैं पुरुष उम्मीदवार को ही दूँगा। भला महिलाओं के कमज़ोर कांधे राजनीति क्या सँभालेंगे, यह तो अपनी घर-गृहस्थी ही सँभाल लें वही ग़नीमत है।” 

पास खड़ी महिला को यह सुनकर बहुत ग़ुस्सा आया। वह कुछ कहती उससे पहले ही उसकी नज़र सामने की दीवार पर लगे इश्तिहार पर जा पड़ी जिस पर लिखा था “मर्दाना कमज़ोरी का शर्तिया इलाज।” 

महिला अपनी भौहें तरेरती हुई व्यंग्यात्मक ढंग से बोली, “भाईसाहब, अपनी वोट देने का निर्णय लेने से पहले ज़रा सामने की दीवार पर पुरुषों की शान में लगा इश्तिहार तो देख लें, फिर बताइएगा इन्हें अपना इरादा।” 

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