अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

द कश्मीर फाइल्स: विवेक रंजन अग्निहोत्री के जज़्बे को सलाम 

टोरोंटो (कैनेडा) में यॉर्क सिनेमा पर दिखाई जा रही विवेक रंजन अग्निहोत्री द्वारा लिखित और निर्देशित फ़िल्म “द कश्मीर फाइल्स” की बड़ी मुश्किल से ऑनलाइन कल रात नौ बजे के शो की टिकटें मिल पाईं। लोगों से खचाखच भरे हॉल में पहुँची तो देखा रात्री के गहन सन्नाटे सी चुप्पी पसरी हुई थी। फ़िल्म देखकर घर लौटी तो दिल दहलाने वाले दृष्यों ने पलक नहीं झपकने दी और सारी रात आँखों में ही कट गई। 

विवेक अग्निहोत्री का संघर्ष पर्दे पर मुखर होकर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा और मनोस्थितियों को उकेरने, उनके साथ होने वाले अन्याय को दर्शाने में अत्यंत सफल रहा है। संवेदनशील लेखक ने नरसंहार केवल शब्दों तक सीमित नहीं रखा बल्कि उन सभी चुप्पी वाले स्थानों पर पाँव रखकर प्रत्यक्ष रूप से उस अमानवीय व्यवहार को दर्शाकर बेबाक ख़ुलासा किया है। 

ऐसी मार्मिक फ़िल्म कि कशमीरी पंड़ितों के दर्द की इंतहा को शिद्दत से महसूस करते हुए स्तब्ध सी पौने तीन घंटे तक मेरी आँखें पर्दे पर टँकी रहीं और दिल बराबर हौलता रहा और आँसू दर्द के अतल समंदर में कहीं जमकर रह गए। फ़िल्म का प्रत्येक कलाकार बधाई का पात्र है जिन्होंने अभिनय किया नहीं बल्कि उसे जिया है। फ़िल्म की प्रोमोशन न होने का सुनकर इसे देखने की उत्सुकता और भी अधिक बढ़ गई थी कि आख़िर इसमें ऐसा क्या है? असल में फ़िल्में ऐसी ही बननी चाहिए जो जनमानस की आँखें खोल दें और यह असंभव कार्य विवेक रंजन अग्निहोत्री जी ने कर दिखाया है, उनकी हिम्मत और हौसले को सलाम। बस यही कहूँगी कि प्रत्येक जन को सत्य पर आधारित इस फ़िल्म को अवश्य सपोर्ट करना चाहिए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

लघुकथा

कविता-सेदोका

कविता

सिनेमा चर्चा

कहानी

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

कविता-माहिया

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. अम्बर बाँचे पाती