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मृगतृष्णा

 
(सॉनेट) 
 
जीवन की आपाधापी में भौतिक विलासिता से प्रभावित
रक्तबीज सी बढ़ती कामनायें हो चुकी हैं कदाचित् अनियंत्रित
स्वयं को सहेजने का करते हुए असफल प्रयास व अश्रुपात 
भीड़ संग अंधी दौड़ में हो सम्मलित, भविष्य है अज्ञात। 
 
साथ ही हो चुके हैं धूल धूसरित संस्कृति व सभ्यता के संवाहक
पुरातन, शाश्वत, आदर्श मानवीय मूल्य की
दशा है हृद-विदारक 
जिन पर करती आयीं थी कई पीढ़ियाँ, हाँ सदियों से गर्व
समस्त शृंखलाएँ हो चुकी हैं मृत देह सी निश्चल और नीरव। 
 
काम, क्रोध, मद, लोभ की मरूभूमि पर आज मृगतृष्णा में 
शोकाकुल आत्मा, कर रही अनवरत क्रंदन आहा, वितृष्णा में 
आध्यात्मिक क्षरण पर अब नहीं रहा वश किसी दैव्यबल का 
कर रहा हूँ पश्चाताप, निर्गुण यह जीवन हुआ अब गरल सा। 

 

 
इस महाभू की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक कामनाएँ हैं असंपूर्ण
कदाचित, मनुष्य रहे दूर बिडंबना से, कर पाए अहंकार को चूर्ण। 

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