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मृग मरीचिका 

 

(सॉनेट) 
 
जैसे ही निरखा दर्पण को कामी चंचल मन हरषाया
नख से शिख तक दमक रही थी कोमल कंचन काया
पाकर रूप अनिंद्य ईश से रह रह गौरव से इतराऊँ
मादकता निहार कर तन की यौवन पर मैं स्वयं लजाऊँ। 
 
मधु रस के लोभी भँवरें जो चारों ओर नित्य मँडराते
कर कर मधुरिम प्रणय निवेदन इस मन को ललचाते
निशा स्वप्न से भी आकर्षक दिवा स्वप्न जब लगता
मंथर गति से नर्तन करते हृद में प्रीति भाव है जगता। 
 
टूटी तन्द्रा मृग मरीचिका में मन भटका जब देखा
समझ न पाया मैंने अब तक क्रूर भाग्य का लेखा
क्या तन का सौंदर्य है शाश्वत देहजनित आकर्षण? 
जिसके वश में होकर मानव कर लेता मिथ्या प्रण। 
 
जब घट जाती तन की कांति विगलित हो अनुरक्ति
चूर चूर हो गर्व झूठ का, हो सिद्ध प्रकृति की शक्ति॥

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