साँझ की बेला
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विनीत मोहन औदिच्य15 May 2024 (अंक: 253, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
(सॉनेट)
थोड़ी सी साँसें ले उधार, करने आये, जग में विहार
बचपन, यौवन, वृद्धावस्था, सब बीत चले पाये असार
ईश्वर को हमने भुला दिया अस्तित्व को अपने जला लिया
जो मिला समय बहुमूल्य हमें मिट्टी में उसको मिला दिया।
ग़लती करके जो सोता है, दिन रात यहाँ पर रोता है
मायावी जग के फेरे में, वो प्रेम प्रभु का खोता है
अब सिर धुन कर पछताता है बीती बातें दोहराता है
जीवन की आपाधापी में वह हर अवसर ठुकराता है।
रिश्ते नाते सब झूठ यहाँ क्यों शान्ति ढूँढ़ता यहाँ वहाँ
झाँको तुम अपने अंतस में रहता है पावन प्रभु जहाँ
आ गयी साँझ की बेला भी सब राग द्वेष अब तो छोड़ो
हो लो विकार से स्वयं मुक्त माया के प्रबल बंधन तोड़ो।
कुछ लेना नहीं उधार वहाँ हर पल चलता व्यापार जहाँ
सांसो की पूँजी कर निवेश कर ले अपना उद्धार यहाँ॥
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