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सर्दियों की लौटती ख़ुश्बू 

 

दूर हवा की सरसराहट में, 
एक ठंडक हल्की-सी आई है, 
पेड़ों की चुप शाखों ने
धीरे से धूप को छूकर कहा—
“हाँ . . . सर्दियाँ लौट रही हैं।”
 
बचपन की सर्दियाँ याद आती हैं . . . 
जब माँ तंदूर के पास बैठकर
ऊन के धागे हाथों में उलझाए
स्वेटर बुनती थी, 
और मैं उन लगती टेढ़े-मेढ़े लूपों में
अपना नाम ढूँढ़ती थी। 
 
माँ कहती—
“ये धागे नहीं, दुआएँ हैं . . . 
ठंड कितनी भी हो, महसूस नहीं होगी।”
और सच, हर साल वही स्वेटर
ठंड से ज़्यादा मुझे माँ की गोद पहनाता था। 
 
दालानों में बिछी हुई धूप
पीठ सहलाती थी, 
और बर्फ़-सी ठंडी सुबह में
स्कूल बैग उठाकर भागना भी
एक छोटी-सी जीत लगता था। 
 
समय बदला . . . 
अब वो घर, वो माँ, वो बचपन . . . 
सब यादों की धूप में बैठे हैं। 
 
अब मैं अपने घर में
स्वेटर और शॉल निकालती हूँ, 
और हर धागे को मोड़ते वक़्त
एक गर्म साँस भर जाती हूँ—
जैसे माँ अब भी मेरे आस-पास हो। 
 
और फिर . . . 
शादी के बाद की सर्दियाँ . . . 
एक अलग ही कहानी। 
अब कपड़ों की तह बनाते वक़्त
मन भी तह से तह रखती हूँ—
नफ़ासत से, सँभालकर, 
जैसे माँ ने स्वेटर में प्यार सहेजा था, 
वैसे ही मैं यादों में
उनकी गर्माहट सँजोती हूँ। 
 
रसोई में आज भी
मेथी की रोटी सिकती है, 
और सरसों का साग
धीरे-धीरे थाली में मौसम सजाता है। 
चाय की भाप उठती है
और मैं मुस्कुराकर सोचती हूँ—
 
“कुछ चीज़ें नहीं बदलतीं . . . 
न सर्दियों की महक, 
न धूप का गुनगुनाना, 
न माँ की याद, 
और न उन स्वेटरों की गर्माहट।”
 
धीरे से हवा फुसफुसाती है—
 
“हाँ . . . 
अब मौसम बदलने वाला है . . . 
अब सर्दियों की कहानी
फिर से शुरू होगी।”

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