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बचपना

भरे-पूरे संयुक्त परिवार होने के बावजूद, समय के साथ प्रत्येक आदमी को अपने-अपने हिसाब से स्थापित होना ही पड़ता है। 

'वंश बढ़े, प्रीत घटे' यूँ ही नहीं कहा गया है। आख़िरकार कब तक, कोई, किसी की ज़िम्मेदारियाँ उठाएगा? गाँव पर सब कुछ होने के बावजूद, कुछ निजी-स्वार्थ आदमीयत में रुकावटें लेकर संसार की कठोरता से सामना करा देती हैं। 

पर्याप्त ज़मीन-जायदाद में से ही कुछ बेच कर अच्छे घर-वर की व्यवस्था, बेटी का बाप कर ही सकता है। पर, गोतिया काहे का जो ज़मीन-जायदाद का मामला अटका कर बिघ्न-बाधा ना डाले। 

'बेटी चाहे जहाँ, जिस घर जाए' इसका सवाल और मलाल क्या? बेटी के प्रति प्यार और संवेदना मात्र अपने रक्त-सिंचित, पालित-पोषित जन्मदाता रूप में ही तो उभरती है। बाक़ी तो अधिकांशतः औपचारिकता भरा झूठ है। 

हाँ, तो किसी तरह सारी सामाजिकता का निर्वाह करते हुए जैसे-तैसे, जोड़-घटाव करके सारी लौकिक औपचारिकताओं का सम्मान करते हुए, "लोग क्या कहेंगे?" जैसी भावना को पूरा करते हुए, जीवन के संघर्षों के हार-जीत, नफ़ा-नुक़सान झेलता, बेटी का पिता। इस विवाह के लिए, लिए गए उधार में कितने सालों तक कर्ज़ के दलदल में फँसा रहेगा? इससे किसी को क्या मतलब? शिक्षित-अशिक्षित बात चाहे किसी समाज की हो। 

बेटे और भाई के विवाह के समय दान-दहेज़, उपहार, लेन-देन की परंपरा, हक़-अधिकार रूप में कितनी आवश्यक प्रतीत होती है ना? 

जिसकी पूर्ति की तीव्रता लालच, स्वार्थ बनकर सभी की हार्दिक-मनोवृत्ति बन गई है। 

"इसमें हर्ज़ क्या है? . . . ये लोकाचार है। . . . ये तो परंपरा है।" जैसे झूठे आश्वासनों से हम ख़ुद से झूठ बोल कर अपने को ठगते हैं। सही–ग़लत का आत्म-मंथन नहीं करते। सुरसा की तरह मुँह फैलाए बेटी के परिवार को निगलने की कोशिश किए चले जाते हैं। 

पाँच लाख मिला तो सात लाख पर दृष्टि। सात लाख मिला तो दस लाख पर दृष्टि। दस लाख मिला तो पन्द्रह लाख . . . जिसका अंतहीन सिलसिला अनवरत जारी रहेगा। 

हाँ, तो अपनी औक़ात-सामर्थ्य के हिसाब से लड़की का पिता सारी व्यवस्थाएँ कर बराबरी और बिरादरी के अनुसार बारातियों के स्वागत में लगा हुआ है। 

देखने-समझने के बावजूद ननद जो कुछ उम्र और अवस्था से ज़्यादा ही दिखावे में व्यस्त अपनी अपरिपक्व बुद्धि के प्रदर्शन में सांगोपांग थी। 

बच्चों के जन्म के बाद उभरा भरा-पूरा दोहरा बदन, चौड़ा सा कुछ ज़्यादा ही गदराए शरीर पर खुले ब्लाउज़ में उभरी हुई पीठ। 

. . . प्रथम दृष्टया प्रतीत हुआ जैसे विवाहिता, तीस-पैंतीस वर्षीया, दो बच्चों की प्रौढ़ा माँ होगी। पूछने पर पता चला कि छोटी बहन है। संसार की पहली और अकेली कोई शिक्षित घमंडी-लड़की वाला भावयुक्त अहंकारी प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर था। 

जिस परिवार की बेटी, उसकी होने वाली भाभी है, वहाँ आत्मनिर्भर बेटियाँ नौकरी-पेशा, डॉक्टर-शिक्षिका, सेना से जुड़ी उच्च शिक्षिता हैं। 

ख़ुद होने वाली दुलहन भी अपने पिता के भावनात्मक और आर्थिक सहयोग के लिए निजी संस्था में कोई काम कर ही रही थी। वैसे परिवार में अधजल गगरी छलकत जाए वाली बात चरितार्थ करती, मौजूद लोगों के मध्य उसका अपना रोबीला प्रभाव छोड़ने का असफल प्रयास साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। "वरमाला के समय किसी रीति-रिवाज़ के नाम पर संदिग्ध परिस्थितियों की जन्मदात्री अतिवादी ननद भावी जीवन में जाने क्या गुल खिलाएगी?" मेरे साथ अन्य लोग भी सोचने पर बाध्य हो गए। यह अस्वीकार करना सामूहिक झूठ होगा। 

हम बारात वापस लेकर चले जाएँगे। जैसी बातों की हवा उड़ा कर हँसी-खुशी के माहौल में तनाव उत्पन्न करने वाला प्रयास देखकर भी माहौल को सँभाले रखना वधूपक्ष की शालीनता और मजबूरी दोनों बन जाती है। जिसका भरपूर फ़ायदा उठाने से वरपक्ष नहीं चूकते। 

विवाह की सारी रस्में, पारिवारिक माहौल में सम्पन्न होने के बाद रिश्तेदारों द्वारा वर-वधू को आशीर्वाद के साथ कुछ न कुछ यथासंभव उपहार देने की प्रथा होने वाली थी। तभी मंडप का एक खंभा पकड़े कटाक्षपूर्ण ननद रानी अपना आख़िरी दाँव खेली– "कंगाल बाप अपनी बेटी को भला क्या देगा? और क्या मिलेगा इस कंगला परिवार से? आज और अभी, यहीं दिख जाएगा। हूँऽऽ . . .।"

साफ़-स्पष्ट सुनने के बावजूद, उसके प्रत्येक शब्दों की तीखी-चुभन, अपने उम्र और अनुभव से माप-तौल कर, मैं सोचती रही, "क्या ये लड़की जो बोल रही, उस बात और विचार का स्वाद, भावुक-संवेदनशील पक्ष सोच और समझ भी पा रही है? वो दर्द और अहसास, क्या और कितना, कैसा होता है? . . . जान पा रही है भी . . . या नहीं? . . . जब तक अपने सिर पर नहीं गुज़रेगा। समझ पाएगी अपनी बेवकूफ़ी भरा बचपना? जो कि सांसारिकता में शामिल है कि प्रत्येक बेटी का बाप गुज़रता है, बेचारगी की उन स्थिति-परिस्थितियों से ब्याह के मंडप पर। बिरला किसी बेटे वाले ने बेटी के पिता का वास्तविक दर्द समझा है। जाने किसी अम्बानी या अडानी परिवार की वंशजों में है यह, जो इतना अहंकारी अभिमान बिना मतलब वाला? यदि किसी करोड़पति बाप की बेटी है भी तो क्या?"

यद्यपि वैवाहिक-माहौल की आपाधापी के बीच उस लड़की की वर्तमान संदर्भ में आर्थिक-पारिवारिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि जानने की उत्सुकता पैदा हो कर वहीं ख़त्म भी हो गई, एक झटके में इस विचार पर कि ससुराल में ननदें होती ही हैं भाभियों के प्रति मूर्खतापूर्ण व्यवहार करने के लिए।

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