चढ़ा था जो सूरज
शायरी | ग़ज़ल देवी नागरानी15 Feb 2016
चढ़ा था जो सूरज सदा वो ढला है
नई एक सुबह कोख में जो पला है।।
न शिकवा शिकायत न कोई गिला है
मिला जो ऐ किस्मत तुम्हीं से मिला है।।
ये मन दोस्त दुश्मन मेरा बन गया है
वही ढूँढे बाहर जो अन्दर बसा है।।
बड़ी बे वफ़ा जिन्दगानी को कहते
"वफ़ा" नाम बस मौत को ही अता है।।
न कर नाज ऐ मौत खुद पर भी इतना
सबक ज़िन्दगी से वफ़ा का मिला है।।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं