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डॉ. राही मासूम रज़ा का साहित्य और समकाल

भारत एक बहुजातीय देश है। विभिन्न जातियों की सांस्कृतिक परंपराओं की अपनी अलग विशिष्टताएँ हैं किन्तु जो तत्व मानव-समुदाय को संगठित करने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं, उनमें इतिहास और संस्कृति का बहुत बड़ा योगदान होता है। यदि भारतीय इतिहास और संस्कृति का विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार संकट की घड़ी में विभिन्न जातियाँ अपनी जातीय अस्मिता और पहचान को रेखांकित करने और उनके प्रभावी भूमिका निर्मित करने के लिए संघर्षशील रही हैं। किसी भी समाज का साहित्य उसके अतीत और वर्तमान की महत्वपूर्ण उपलब्धियों को स्पष्ट करता है। अतीत और वर्तमान ही उस समाज की भावी गति और विकास की मूलधारा का निर्धारण करते हैं। कम शब्दों में कहें तो साहित्य वह विधा है जो संपूर्ण मानव जीवन को उसकी पूर्णता में अभिव्यक्त करने का प्रयास करती है। 

राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण लोकप्रिय हो गए थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फ़िल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही (1/9/1925–15/3/1992) का जन्म गाजीपुर ज़िले के गंगौली गाँव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। अस्वस्थता के कारण कुछ वर्ष के लिए उनकी पढ़ाई छूट गई और बाद में अलीगढ़ आकर पढ़ाई जारी रखी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के उर्दू विभाग में प्राध्यापक हो गए। वहाँ रहते हुए राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण कार्य में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धांतों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय रूप से प्रयत्न भी करते रहते थे। 

1968 से राही मुम्बई में रहने लगे थे। यहाँ रहते हुए रही ने "आधा गाँव", "दिल एक सादा काग़ज़", "ओस की बूँद", "हिम्मत जौनपुरी" आदि उपन्यास लिखे। 1965 में भारत–पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी "छोटे आदमी की बड़ी कहानी " लिखी। ये सभी कृतियाँ हिन्दी में थी। इससे पहले वे उर्दू में, "एक महाकाव्य 1857" जो बाद में हिन्दी में " क्रांति कथा " नाम से प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही उर्दू नज़्में व ग़ज़लें लिख चुके थे। "आधा गाँव ", " नीम का पेड़", "कटरा बी आर्जव", "टोपी शुक्ला", "ओस की बूँद" और "सीन 75" उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। राही मासूम रज़ा ने जिस युग को देखा है जिस परिवेश में पले-बढ़े उसका चित्रण उन्होंने अपने कथा साहित्य में किया है। उनके उपन्यास हमें 1937 से लेकर 1984 तक के समय को दिखाते हैं। राही की अपने राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्धता उनके पूरे रचना संसार में दिखाई पड़ती है। राही की राष्ट्रीय चेतना कितनी प्रबल थी इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि 1857 में उभरी राष्ट्रीय चेतना पर पूरा महाकाव्य लिख डाला। उन्होंने इस महाकाव्य में अनेक ऐसे पहलुओं को उजागर किया है जिनसे हम आज सीख ले सकते हैं। 

सैनिक विद्रोह में समाज के हर वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया। ये आम जनता का आन्दोलन था। लोगों की देश के प्रति भक्ति उभर कर आई। इस आन्दोलन ने धर्म की दीवारों को गिरा दिया। हिन्दू- मुसलमान दोनों धर्म के लोगों ने मिल-जुलकर इस लड़ाई में हिस्सा लिया। इस लड़ाई ने अँग्रेज़ों को यह जता दिया कि हिन्दू-मुसलमान की एकता को तोड़े बिना आगे बढ़ना नामुमकिन है। अँग्रेज़ों के "फूट डालो और राज्य करो" सिद्धांत ने 1947 में देश का विभाजन करा दिया। राही आजीवन इस अलगाववादी शक्तियों का विरोध करते रहे। उनको इस बँटवारे का बहुत दुख था। उनकी इस पीड़ा का विस्तार उनकी रचनाओं में झलकता है। 

"आधा गाँव" का साहित्य में एक विशिष्ट स्थान है। इस उपन्यास में राही ने देश विभाजन के विषय को लेखन का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया है। दरअसल विभाजन उनके लेखन का मूल मुद्दा रहा जिसमें हिन्दू- मुसलमानों का ताल्लुक़ ही सर्वत्र स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लेखक स्पष्ट करते हैं कि गंगौली के मुसलमान राजनीतिक दाँव-पेच नहीं जानते। वे सिर्फ़ गंगौली को जानते हैं। पाकिस्तान बनने पर मुसलमानों के सामने यह सवाल पैदा होता है कि वे हिन्दुस्तान में रहें या पाकिस्तान जाए। लेखक पाकिस्तान के कारण सामाजिक संबंधों में आए बदलाव को भी लिखते हैं। इससे जीवन के हर क्षेत्र में बदलाव आया है। राही लिखते हैं, "ई पाकिस्तान तो मियाँ–बीबी, बाप–बेटा और भाई–बहन को भी अलग कर रहा है।"

इसी प्रकार से "टोपी शुक्ला" में सांप्रदायिक दंगों के बीच व्यक्ति के खो जाने की बात करते हैं। समाज की संकीर्णताओं से लड़ने वाले व्यक्ति की, समाज में स्वयं को ढाल न पाने की, हम सब की व्यथाओं को व्यक्त करते हैं। इस आन्तरिक द्वंद्व के कारण लेखक बेचैन है। साम्प्रदायिकता ने इनसान से इन्सानियत को निचोड़कर फेंक दिया है। आज इनसान आदमख़ोर बन गया है। सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने पर लेखक एक अत्यंत मार्मिक व्यंग्य करते हुए लिखते हैं, "महेश मनुष्य था, उसे आदमियों ने मार डाला।" इस रचना के माध्यम से राही ने भारतीय विश्वविद्यालयों में व्यापक रूप से व्याप्त जाति प्रथा, धर्म, साम्प्रदायिकता की भावनाओं के फैले ज़हर के असर को दर्शाया है। एक धर्म के लोग अन्य धर्मावलम्बियों पर लगातार छोटी-मोटी बातों के लिए दोषारोप कर सिलसिलेवार शिकायतों का पुलिन्दा लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। "टोपी " की मुसलमानों से सबसे बड़ी शिकायत यह रहती है कि अधिकांश मुसलमान यहाँ पर रहते हुए भी यहाँ के नही हैं। वे पाकिस्तान की ओर देखते रहते हैं। उसकी नज़र में 'अलीगढ़ यूनिवर्सिटी पाकिस्तानी कारखाना' है। "टोपी" अध्यापन के लिए कई शिक्षण संस्थाओं में आवेदन करता है वहाँ उससे तरह-तरह के बेतुके सवाल पूछे जाते हैं। उसे कहीं हिन्दू होने के कारण और कहीं मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने के कारण नौकरी नहीं मिलती है। राही ने "टोपी " की आत्महत्या के अनेक कारण दर्शाए हैं। कुछ हद तक उनका अकेले हो जाना ही उनके मानसिक दुर्बलता का मुख्य कारण बना और उन्होंने इस धरा को अपने रहने के योग्य नहीं समझा और आत्महत्या कर ली। "ओस की बूँद" हिन्दू–मुस्लिम सांप्रदायिकता पर आधारित है। राही लिखते है इस नई पीढ़ी को विरासत में कुछ भी नहीं मिला। इसके लिए राही पुरानी पीढ़ी को दोषी ठहराते हैं। यह पुरानी पीढ़ी का फ़र्ज़ है कि नई पीढ़ी को संस्कारों का, धर्म विषयक महत्वपूर्ण मुद्दों का सही मार्गदर्शन मिले; इस पर वे सचेत रहें। अन्यथा परंपरागत वैमनस्य पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहेगा। शहला इस प्रयास की एक मज़बूत कड़ी है। नहीं तो वह तमाम मुस्लिम वकीलों को छोड़कर 'शिव नारायण' के पास अपना मुक़दमा लेकर क्यों जाती? इतिहास साक्षी है कि आज का युवा वर्ग दो धर्मों के मध्य की इस खाई को पाटने का भरसक प्रयास कर रहा। 

विभाजन से उपजी त्रासदी का जीता जागता चित्रण राही ने "दिल एक सादा काग़ज़" में किया है। रफ्फन का दुःख इसी विभाजन के कारण है। परिवार के सारे लोग पाकिस्तान चले जाते हैं। जुदाई का यह दर्द बड़ा जानलेवा होता है। रफ्फन शायरी भी करता है। उसकी शायरी एक फ़िल्म हीरोइन को बहुत पसंद आती है और उस हीरोइन की मदद से वह फ़िल्म इंडस्ट्री में गीत लिखने लगता है। उपन्यास के माध्यम से राही फ़िल्मों द्वारा समाज को सही दिशा दिखाना चाहते हैं। "सीन 75" इसका उदाहरण है जिसके माध्यम से लोगों में राजनीतिक चेतना का जागृत करना ही उनका उद्देश्य रहा।

राही ने अन्य उपन्यास भी इस विभाजन से संबंधित विषय के आस-पास ही लिखे।रचनात्मकता के क्षेत्र में राही ने अनेक नए मुद्दों को उठाया है उनकी रचनाओं ने उनके समय का समाज, समय और राजनीति सभी के विषयों को रेखांकित किया है। उन्होंने न केवल उपन्यास को ही इस का माध्यम बनाया अपितु कविता, लेख, व्यंग्य रचनाएँ और साहित्य की और अनेक विधाओं को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उन्होंने देश और अपने परिवेश में घटने वाले पर बे ख़ौफ़ अपनी क़लम चलाई। "भाषा और राष्ट्रीयता", "क्या है देश की परिभाषा", "हिन्दुस्तान के नक्शे में हिन्दुस्तान नहीं है", साम्प्रदायिकता का कोई मज़हब नहीं", “मेरा दोज़ख़ मेरी जन्नत से अच्छा है", "मुहर्रम एक ठेठ भारतीय त्योहार है” – आदि राही ने देशप्रेम धर्म तथा सांप्रदायिकता का पैग़ाम शीर्षक पुस्तक में दिया। समाज की कुप्रवृत्तियों को पहचान कर उसे अपने लेखन का विषय बनाया। जिन दिनों राही "महाभारत" के संवाद लिख रहे थे उन्हीं दिनों राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का आन्दोलन चल रहा था। उस समय उन्होंने दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों की साम्प्रदायिक सोच के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। बी.आर. चोपड़ा को भी काफ़ी विरोधों का सामना करना पड़ा। विरोधियों को जवाब देते हुए राही ने कहा, “चोपड़ा साहब! महाभारत अब मैं ही लिखूँगा। मैं गंगा का बेटा हूँ। मुझसे ज़्यादा हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है?" (राही मासूम रज़ा की दोस्ती हिन्दुस्तानियत का पैग़ाम- सं. कुंवारपाल सिंह- पृ 16)

राही की क़लम इतनी सशक्त थी कि अन्याय, विद्वेष और असंस्कारी प्रवृतियों पर जमकर प्रहार करती थी। उन्हें जब भी कहीं कुछ ग़लत दिखता उस पर त्वरित प्रहार करने से कभी नहीं चूकते थे चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या किसी भी राजनीतिक दल से संबंधित हो उनका दृढ़ विश्वास था कि धर्म और राजनीति दो भिन्न क्षेत्र हैं। अतः दोनों को जोड़कर लोगों को भ्रमित कर गुमराह करने की राजनीति सही नहीं है।

राही धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीयता के सवालों पर बड़ी शिद्दत से लिखते हैं। राही भारतीय संस्कृति को एकांगी नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि भारतीय संस्कृति का चरित्र बहुआयामी है। उसमे कई रंग और ख़ुशबुएँ हैं। फिर भी वह गंगा की तरह व्यापक और पवित्र है। गंगा बड़ी है किसी एक धर्म की क़ैद में नहीं।

 राही के लिए धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बहुत व्यापक है। 

डॉ. नमिता सिंह जी उनके लेखन के विषय में लिखती हैं, "उनके लेखन की विशेषता यह थी कि वह लेखन कोरा नहीं था। वे सदैव ज्वलंत सामाजिक प्रश्नों से जूझते रहे। हर प्रकार की सांप्रदायिकता के विरोध, समाज को बाँटने वाली हर ताक़त, हर संकीर्ण विचार का विरोध उनके लेखन और जीवन का एक मात्र उद्देश्य था। उनकी वाणी और क़लम का ओज दुर्लभ है। वे अपने लेखन में, विचारों की अभिव्यक्ति में बेहद बेबाक और निर्भीक थे। ख़तरे उठाना लेकिन सफ़ाई से अपनी बात कहना उनका धर्म था।" ( "राही के विचार” - पृष्ठ 95)। डॉ. नमिता जी ने राही के लेखन के उद्देश्य को बड़ी दक्षता के साथ लिखा है। 

राही ने उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखा। उन्होंने उर्दू को अस्वभाविक बनाने वाले इस्लामिक प्रतीकों का परित्याग किया। कविता में उन्होने अपने आदर्श नायक का प्रतीक पुरुष चुना– हिमालय की ऊँचाइयों में भटकने वाले योगी शंकर को। उनकी प्रेम कविताओं की आलम्बन बनी राधा —

"शाम भी राधा के ख़्वाबों की तरह बेज़बां है।" (राही के विचार - 67)

उनकी "थकन" कविता में एक उदासी एक बेचैनी दिखाई देती है। यह बेचैनी केवल शायर डॉ. राही की नहीं पूरे समाज की है पूरे देश की है –

"पर ये सुनसान बयाबां तो न मंज़िल है, न घर 
इस जगह मेरे सिवा कोई नहीं
न ख़िरद है, न जुनूँ 
अपनी रूदादे-सफ़र किससे कहूँ 
न कहीं धूप न छाँव 
किसी दलदल में फँसे जाते हैं आवाज़ के पाँव 
दूर होता ही चला जाता है वह नींद का गाँव 
जिसके सपने से मुहल्ले में बड़ी धूम से रात आई है
चाँदनी ले के बारात आई है।" (वही पृ - 69)

राही सांप्रदायिकता पर लिखते थे पर एक संवेदनशील रचनाकार थे। संवेदनशीलता से भरी उनकी कविताएँ, ग़ज़लें, शेर इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उन्होंने अपने प्रतिमान स्वयं गढ़े और उन पर सिद्धांत स्थापित करते हुए कविता को एक नई ऊँचाई प्रदान की। राही के उपन्यास, कविताएँ उनकी ग़ज़लें साहित्य की धरोहर है। उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है। 

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टिप्पणियाँ

prithwi nath mukharji 2021/03/01 05:44 PM

good article on Dr Rahimasum Raza . writer. poet script writer of movies and famous TV serials.

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