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कृष्णा वर्मा - बेटियाँ हाइकु

घर न पर
कैसे जिएँ बेटियाँ
बड़ा क़हर।

 

ज़मीं न ज़र
बंजारन ज़िन्दगी
आँसू से तर।

 

आँखों में ख़्वाब
लाख रस्म पहरे
कैसे हों पूरे।

 

डट जीती जो
होती ख़ुदगरज़
मासूम दिल।

 

बेटी का वास
हैं तय दहलीज़ें
औ परवाज़।

 

है आक्सीजन
हर घर आँगन
की ज़रूरत।

 

बेटी है दुआ
सुख का समंदर
बसे वीराना।

 

संदली रिश्ते
है बेटी ज़माना
हँसी खज़ाना।

 

उम्मीदें ख़्वाब
न चाहत राहत
सिर्फ लानत।

 

सहमे खड़े
पलकों पर स्वप्न
आँसू निचोड़े।

 

भोर सी बेटी
शाम सी ढल जाती
भाग्य के नाम।

 

चाहे ख़ुशियाँ
फिर कहे पराई
कैसी तू माई।

 

अपना ख़ून
फिर न बाँटे प्यार
क्यों शर्मसार।

 

बेटी ख़ता न 
तुम्हारा अपराध
रब सौग़ात।

 

माँ ले क़सम
बिटिया के ख़्वाबों को
देगी तू पर।

 

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