मुमकिन ही नहीं
शायरी | नज़्म धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’15 Jan 2020 (अंक: 148, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
दिल के हर ज़र्रे में बसा है
वो नाम. . .
जिसके होने से हर अँधेरा,
गुम हो जाता था।
उसकी मासूमियत में छुपे जाने
कितने राज़? कितने क़िस्से? कितनी यादें?
और ना जाने कितने सपने?
जिनको बुनते अर्से बीत गये. . .
बयां नहीं होते वो अल्फ़ाज़
जो कहे थे एक दूजे से उन गलियों में,
जिन्हें अब बदनाम कहते हैं।
ख़ुद से भी ख़फ़ा कोई ख़बर नहीं है मुझे. . .
अफ़ीम के नशे की तरह था
मेरा इश्क़. . .
मेरा जुनून. . .जाने कैसे टूट गया?
लेकिन....
वो वक़्त अब नहीं रहा,
जिसे दोबारा से जी सकूँ. . .
उस नाम को फिर से पुकार सकूँ।
सर अपना तेरे काँधे पर रख कर,
इक दफ़ा फिर मुस्कुरा सकूँ. . ..
दीये की तरह रातों में,
जलता रहता हूँ....
ढूँढ़ता हूँ कुछ टूटे हुये ख़्वाबों को,
जो मुमकिन ही नहीं...
फिर क्यूँ दीवानों की तरह,
आज भी तेरा इन्तज़ार रहता है
जो मुमकिन ही नहीं....
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अट्टालिका पर एक सुता
 - आख़िर कहाँ चले गये हो तुम?
 - काश!
 - किस अधिकार से?
 - कैसे बताऊँ?
 - कोई जादू सा है
 - खिड़की
 - चाय
 - जाग मुसाफ़िर, सवेरा हो रहा है....
 - नव वर्ष आ रहा है
 - ना जाने कब सुबह हो गयी?
 - ना जाने क्यूँ?
 - नफ़रतों के बीज ही बो दूँ
 - बसंत आ गया है...
 - मेरी यादें
 - मैं ख़ुश हूँ
 - लो हम चले आये
 - शाम : एक सवाल
 - सन्नाटा . . .
 - सुकून की चाह है . . .
 - स्वप्न
 - हम कवि हैं साहेब!!
 - क़िस्से
 - ज़रा उत्साह भर...
 
गीत-नवगीत
नज़्म
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं