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मूल्यनिष्ठ समाज की संस्थापक – नारी

“स्वतंत्र भारत में नारी को मिले वैधानिक अधिकारों की कमी नहीं – अधिकार ही अधिकार मिले हैं। परंतु कितनी नारियाँ हैं जो अधिकारों का सुख भोग पाती हैं? आप अपने कर्तव्य के बल पर अधिकार अर्जित कीजिए। कर्तव्य, अधिकार दोनों का सदुपयोग कर आप व्यक्ति बन सकती हैं। आपको अपने कर्तव्य का मान है तो कोई पुरुष आपको भोग्या नहीं बना सकता – व्यक्ति मानकर सम्मान करेगा। इसी तरह आनेवाली पीढ़ी आपकी ऋणी रहेगी।”– महादेवी वर्मा।

महादेवी वर्मा की इसी विचारधारा को उत्तोरत्तर गति देती हुई मृदुला सिन्हा जी की क़लम नारी विषयक विचारों को बड़ी गहराई से चिंतन मनन करती है। स्त्री-विकास की दिशाओं को ढूँढ़ती हुई उनकी प्रगति के विषय पर निरंतर चिन्ता करती हुई मृदुला जी की क़लम नारी के अन्तर्मन को चित्रित करती है। उनके विचार से आज की नारियों ने बाहर की दुनिया भरपूर देख ली। घर उसके अंदर रचा-बसा है ही। नारी जीवन के इसी मोड़ पर चिंतन करना है। दिशाएँ ठीक करनी हैं, इन्हीं दिशाओं को ढूँढ़ने भर का प्रयास करती हुई उनकी क़लम से रची “मात्र देह नहीं है औरत” एक विशिष्ट कृति बन गई है।

सामाजिक विषमताओं, नारी के प्रति दोयम व्यवहार, घरेलू हिंसा, पुरुषों के कार्य क्षेत्र में महिलाओं का पदार्पण, चलचित्र, धारावाहिकों में नारी की छवि को विद्रूप बनाना आदि विचारधारा से प्रभावित हिन्दी की शीर्षस्थ सर्जक और विचारक मृदुला सिन्हा जी की सुदीर्घ रचनायात्रा भारतीय मनीषा का प्रतीक है। उनकी लेखकीय गरिमा उनकी विचारधारा को एक अलग आयाम देती है। उनकी रचनाओं में जीवन के अनमोल सच बिना किसी अलंकरण के देखा और परखा जा सकता है। जीवन के संघर्ष और विसंगतियों के विषय में उनकी निर्भय लेखनी सहज अपनी ओर आकर्षित करती है।

सामाजिक विषमताओं और खाइओं को पाटना ही विकास की दिशा निर्धारण का एक आयाम बन गया है। निश्चित रूप से स्त्री के जीवन में परिवर्तन आया है। शिक्षा और रोज़गार शत प्रतिशत बढ़ा है कुछ क्षेत्रों में पुरुषों से आगे बढ़कर अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन कर अपनी स्थिति को मज़बूत बनाया है। परन्तु दूसरी ओर ज़्यादतियों के कारण भययुक्त वातावरण का भी सामना करना पड़ रहा है। डरी-सहमी है, चिंतित है मानस। घर और बाहर असुरक्षित है।

नारी की इस स्थिति पर विचार करती हुई मृदुला जी के विचार बड़े मार्मिक हैं। हमारी संस्कृति में नारी की विशेष शारीरिक संरचना के कारण विशेष सामाजिक व्यवस्थाएँ की गई हैं। आज की बदली हुई अपनी विभिन्न भूमिकाओं में उसे अपने दायित्वों को निभाना ही पड़ रहा है और उसे निभाना भी है। अतः समाज निर्माण में जहाँ नारी की विशेष क्षमताओं का सदुपयोग करना है वहीं इनके संरक्षण और सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था भी करनी है।

मृदुला जी के अनुसार एक मूल्य निष्ठ  समाज के लिए जीवन में मूल्यों की स्थापना करना नारियों का ही दायित्व है। जीवन के महत्वपूर्ण संस्कार केवल माँ ही अपने बच्चों को दे सकती है। नारी को महत्वपूर्ण दर्जा देती हुई कहती हैं कि स्त्री पुरुष के बराबरी की इस दौड़ में इस क्षेत्र में भी महिलाओं को पुरुषों से बराबरी नहीं करनी है। उन पर ही (पुरुषों) जीवन मूल्यों की स्थापना का सम्पूर्ण दायित्व नहीं छोड़ना है।

महिलाओं को उनके संतुलित विकास के अवसर प्रदान करना स्वयं परिवार, समाज और सरकार का दायित्व है। समाज-रचना में लगी नारियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी समाज का कार्य है। नारी की शक्ति व सामर्थ्य से समाज का विकास और समाज के सार्थक सदुपयोग से नारी का विकास होगा, तभी नारी अपनी सहज और सार्थक भूमिका निभा सकेगी।

जीवन जगत में न जाने कितने तरह के जीवन और समाज पद्धतियाँ देखने को मिलती हैं। लेखक समाज के वर्तमान स्वरूप को स्थितियों के लिए, उन्हीं सारी स्थितियों को मानता है जिनको हम जानते हैं और अपने ढंग से ही पहचानने का प्रयत्न करते हैं। मृदुला जी भी अपने ढंग से ही चीज़ों को देखती हैं। पर उनका देखने का इतना अलग ढंग का होता है कि उसके सामने हमारे सोचने का तरीक़ा एकदम भिन्न लगता है।

लोकसाहित्य में नारी का एक विशिष्ट स्थान है। समाज में लोकसाहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होता रहा है और हर पीढ़ी इस साहित्य में तत्कालीन समाज के गीत और कथा जोड़ती आई है। लोकगीत और लोककथाएँ वाचिक रूप से समाज में जीवित रहती हैं। इनमें समाज का चित्रण रहता है, इसलिए इन गीतों और कथाओं के अध्ययन से स्त्री-पुरुष, रिश्ते-नाते, व्रत-त्यौहार, संस्कार के बारे में जाना जा सकता है। हमारे समाज की प्रमुख घटक नारी है और इनके वर्णन से लोकगीत और लोक कथाएँ भरी पड़ी हैं।

मृदुला जी लोकगीत और लोकसाहित्य की मर्मज्ञ हैं। उनके अनुसार इन लोकगीतों और लोक-कथाओं के अध्ययन से पता चलता है कि अनपढ़ और पर्दानशीन महिलाएँ भी बुद्धिमति होती थीं। व्यवहार कुशल नारियाँ विषम समय पर अपने घर में पुरुषों को ढाढ़स बँधाती और समस्या का सही समाधान भी सुझाती रही हैं।(पृ-११५)

इस साहित्य में वेद-पुराण के नीतिगत निर्देश भी समाहित हैं। उन्हें मात्र ऊँचा आदर्श न बनाकर लोकजीवन में पानी में शक्कर की भाँति घोल दिया गया है, इसलिए वे विश्वसनीय और व्यवहार संगत भी हो जाते हैं। भारतीय जीवन-मूल्यों को जीती अपनी अभावग्रस्त ज़िन्दगी में आदर्श को घोल समरस कर लेती हैं। भारतीय नारी को ढूँढ़ना, परखना और जानना है तो लोकसहित्य में तलाशना चाहिए। आधुनिक नारी की समस्याओं के समाधान में भी इन नारी पात्रों के जीवन रामबाण का काम कर सकते हैं।

संबंधों पर विशेष महत्त्व देती हुई मृदुला जी कहती हैं कि संबंध ही दायित्वों के जनक हैं। सामाजिक और  सार्वजनिक जीवन में भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं का दायित्व संबंध निभाने में अधिक रहता है। इससे नारी की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। कोमल हृदय की होने के कारण उसे घात-प्रतिघात का भी सामना करना पड़ता है और इससे उबरने की क्षमता भी सँजोनी पड़ती है।

वह बहुत दृढ़ स्वर से कहती हैं कि औरत को मात्र देह समझना और उसे भी यही समझाना, कहीं से भी उचित नहीं है बल्कि उसे स्वस्थ और सबल बनने की शिक्षा देनी चाहिए।

मृदुला जी ने बड़े सशक्त रूप से नारी के जीवन का सबसे करुण पृष्ठ को खोला है – “अर्थोपार्जन के लिए अपने शरीर को बेचना”। यह नारी-जीवन का सबसे विकृत रूप है। किसी न किसी रूप में हर काल में नारी अपने जिस्म को बेचकर अर्थार्जन करती रही है। यह सच है कि कोई भी स्त्री इस क्षेत्र में स्वेच्छा से क़दम नहीं रखती है। दरअसल वे परिस्थितियों की मारी होती हैं। ज़बरदस्ती उन्हें शरीर बेचने पर मजबूर किया जाता है। छोटे बड़े शहरों में इनके लिए इनका अपना ही समाज है। गम्भीरता से इस विषय पर विचार करते हुए मृदुला जी के विचार हैं कि इनकी स्थिति को सुधारना इन्हें पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित करना, स्वस्थ जीवन देने के लिए क़दम उठाना हमारा कर्तव्य बन जाता है।

वस्त्र परिधान को लेकर उनकी वाणी मन में हलचल मचाती है। सटीक और मार्मिकता से जब वह कहती हैं, महिलाओं के अंग प्रदर्शन से उनके प्रति आकर्षण भी घटता है। उबाऊ लगता है। एक और दृश्य बड़ा ही विद्रूप लगता है – एक ओर तो स्त्री का वस्त्र कम से कम, दूसरी ओर पुरुष के पूरे बदन का ढका रहना।

समाज के लिए चिन्ता का विषय है – उन महिलाओं के लिए भी, जो मात्र पैसे के लिए इस प्रकार से अपना उपयोग करने देती हैं।(पृ.१३३)

समयानुसार परिधान में परिवर्तन होते रहते हैं समय और सुविधा का इसमें मुख्य स्थान है। पर वस्त्र की भी अपनी भाषा होती है। बहुत कुछ कह जाते हैं हमारे परिधान। वस्त्र के संकेत और भाषा का दुरुस्त रहना आवश्यक है, ताकि वे नारी के चतुर्दिक विकास में सहायक हो। नारी के व्यक्तित्व में निखार ला सकें।

शिक्षा के प्रचार-प्रसार से नारी के मन में आत्मविश्वास की भावना का विस्तार हुआ है। इन दिनों तकनीकी तथा व्यवसायिक शिक्षा का भी प्रचार-प्रसार हुआ है। लाखों महिलाएँ सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहीं हैं। उनमें आत्मविश्वास बढ़ रहा है। महिलाओं के अन्दर बढ़ता जा रहा यह आत्मविश्वास सामाजिक समस्याओं के विषय में भी उनके रुख में परिवर्तन लाया है। वे इन समस्याओं से जूझने और इनका समाधान करने के लिए अपने को सक्षम बना रही हैं।

परिवार और समाज दोनों में ताल-मेल बैठाकर अपने दायित्व को निभाने की दक्षता नारी में दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। यह पदक्षेप कठिन है पर असंभव नहीं। आत्मविश्वास के साथ अग्रसर होना केवल नारी के लिए ही नहीं परिवार और समाज के लिए भी महान उपलब्धि है। प्रगतिशील समाज के लिए भी हितकारी है। मृदुला जी का नारी संबंधी दृष्टिकोण अति प्रखर है। वह नारी उत्थान की हिमायती हैं। उन्होंने नारी की अपरिचित शक्ति को अपनी रचनाओं में जगह-जगह प्राथमिकता दी है। वह नारी को एक अतुलित शक्ति सम्पन्न रूप में देखना चाहती हैं। अबला के पारंपरिक अर्थ में नहीं। महिलाओं की जीवनदशा सुधारने तथा उन्हें सामाजिक एकता के सूत्र में पिरोने के लिए यह आवश्यक है कि देश में एक समान नागरिक संहिता हो। समान नागरिक संहिता के अभाव में महिलाओं के जीवन-स्तर में अंतर है ही। इसके साथ ही दहेज़ प्रथा, जो समाज पर एक धब्बा है; इसके लिए केवल लेनेवालों को दोषी ठहराने से नहीं बनेगा देनेवाले भी उतने ही दोषी हैं। अतः इस पर भी विशेष चिंतन-मनन की आवश्यकता है। इतने नियम क़ानून के बावजूद यह प्रथा ज्यों के त्यों बनी दिखती है। अतः शिक्षा के साथ-साथ मानसिकता में परिवर्तन की भी अति आवश्यकता है। साहसिक और दृढ़ पदक्षेप द्वारा ही इसका निराकरण होगा।

महिला-संस्थाएँ, महिला विकास में रत स्वयंसेवी संगठन इन दोनों प्रकार कि संस्थाओं का आपसी मेल-मिलाप और विचार तथा उपलब्धियों का आदान-प्रदान भी आवश्यक है। आपसी सहयोग से यही संस्थाएँ समाज में क्रांति ला सकती हैं।

इन्ही चिन्तनों से मृदुला सिन्हा जी के गहन अध्ययन, व्यापक जीवनानुभव और स्पष्ट सूझबूझ का पता चलता है। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए अपने अन्दर जागरुकता, साहस और आत्मविश्वास के भाव का अनुभव करते हैं। यह स्पष्ट है कि उनकी ये विचार धारणा नारी उत्थान और प्रगति के पथ की मशाल बनेगी। उनकी लेखनी और सशक्त हो यही मेरी कामना है।

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