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प्रवाद पर्व  का लोकपक्ष

प्रवादपर्व, सप्तक कवि श्रीनरेश मेहता का रामकथा पर आधारित काव्य है। 'संशय की एक रात' और 'महा प्रस्थान' की तरह इस काव्य की कथावस्तु भी अत्यन्त विरल है, लेकिन वैचारिकता और भाव प्रवणता अत्यंत सघन है। इसमें कवि ने शुद्ध यथार्थ की तलाश नहीं की है, क्योंकि कवि के अनुसार- 'काव्य भी अपनी सत्ता, पहचान, प्राणवत्ता और प्रयोजन सभी कुछ खो देता है जब वह केवल यथार्थमुखी हो जाता है। ... यथार्थ को धर्म और दर्शन दो डैने प्रदान करके ही काव्य अपनी काव्यात्मक यात्रा आरंभ कर सकता है।' यथार्थ के बजाय इसमें कवि ने लोकपक्ष की नींव को दृढ़ करने और समाजवादी दर्शन को जीवन में अनुस्यूत करने पर बल दिया है।

सीता के लंका प्रवास के संदर्भ में एक धोबी हाट में दोषारोपण करता है। सरे आम इस प्रकार कीचड़ उछालना एक द्वेषपूर्ण कार्य है, लक्ष्मण का ऐसा ही मत है। राम दूसरे ढंग से सोचते हैं: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है। धोबी को दण्डित नहीं किया जा सकता। यदि यही दोषारोपण किसी अनाथ असहाय नारी पर किया जाता, तो क्या वह (लक्ष्मण) राजदरबार में न्याय के लिए आता? व्यक्तिगत प्रेम-मोह को त्यागकर उन्हें सीता को निर्वासित करना पड़ता है।

सत्ता की अन्धता और निरंकुशता पर राम बार-बार प्रश्न चिह्न लगाते हैं। शासित के मधुर सम्बन्धों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दमन का विरोध, मानवीय मूल्यों का सम्मान, राज्य और न्याय, वैयक्तिकता का विसर्जन, जनमत का सम्मान, तथा स्वतंत्रता अनिवार्य एवं अपरिहार्य है।

'साधारण जन के पास / कब भाषा रही है / वह तो / सदा देह से ही बोलता है।'

यही प्रश्न राम के मन को व्याकुल करता है कि 'राजशक्ति पर प्रश्न चिह्न लगाना / विरोधी संकल्प कैसे हैं?' जब तक व्यक्ति अपना स्वर नहीं उठाएगा, तब तक वह न्याय-अन्याय की समीक्षा कैसे कर सकेगा?

"यह कोई आवश्यक नहीं कि / सत्य / अपनी ऐतिहासिक अभिव्यक्ति के लिए /
केवल राजपुरुषों या / पंडितों को ही चुने।"

जिस दिन मनुष्य अभिव्यक्ति हीन हो जाएगा, राम ने उस दिन को समाज के लिए सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण माना है। कोई भी सत्ताधारी, सामाजिक भाषाहीनता का सामना नहीं कर सकता। आपात स्थिति के परिणामों ने कवि के इस कथन को सत्य सिद्ध कर दिया है। केवल रावण के पास ही वाणी, भाषा और आदेश थे और शेष चराचर के पास झुके मस्तक और आज्ञा सुनते कान। अभिव्यक्तियाँ, असहमतियाँ भयात्तुर नेत्र बन चुकी थीं। प्रजा का अस्तित्व नगण्य था, केवल-

"राजाज्ञाओं के विराट / भयातुर मौन में आबद्ध / एक / अकेला स्वर्ण सिंहासन /
और उस पर / राज्य भय के / एकमात्र स्वर्ण प्रतीक-सा बैठा हुआ"-रावण।

अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाकर शासन नहीं किया जा सकता। रावण भी ऐसा नहीं कर पाया। अभिव्यक्ति मानवीय गरिमा है और

'एक मात्र मनुष्य ही / सृष्टि की जिह्वा है।'

जिस प्रकार सृष्टि का ईश्वरहीन हो जाना निरर्थक है, उसी प्रकार मनुष्य का भाषाहीन होना भी।

दमन के बलबूते पर कोई शासक अधिक देर तक जीवित नहीं रह सकता। सत्ता के हाथों में शक्ति के हित-साधन के लिए सौंपी गई है; लेकिन सत्ता इसका दुरुपयोग प्रजा के विरुद्ध करती है। सत्ता की आयु क्षीण करने में दमन का भी हाथ है; क्योंकि शक्ति की अन्धता विवेक के मार्ग पर नहीं चलती है। उससे टक्कर लेने के लिए निरीह जनता के बीच से कोई पुराण पुरुष जाग उठता है:

'जब-जब भी लोगों को /इतिहासहीन कर देने की चेष्टा की गई है।
तब-तब वे लोग... इतिहास की आग पर चलकर/ पुराण-पुरुष बन जाते हैं।'

सत्ता का औचित्य मानव मूल्यों की स्थापना और उनके सम्मान में है। लोकहित की न तो उपेक्षा ही की जा सकती है और न अवमानना ही। व्यक्ति लोकतंत्र की नींव का पत्थर हो सकता है उसका शिखर नहीं, शिखर होती है मानवीयता। यही राम का प्रश्नाकुल मन कहता है-

"व्यक्ति /चाहे वह राजपुरुष हो या /इतिहास पुरुष अथवा
पुराण-पुरुष /मानवीय देशकाल से ऊपर नहीं होता राम।"

राज्य, न्याय, धर्म, दर्शन, इतिहास और पुराण इन सबका गन्तव्य मानवता की ओर होता है। मानव से मुँह मोड़कर ये आगे नहीं बढ़ सकते। भयाक्रांत मानवीयता क्षणिक होती है और व्यक्ति- 'पद, मर्यादा, अधिकार, सब कुछ का त्याग कर ही निर्भय हो सकता है।'

राज्य और न्याय एक दूसरे के पूरक हैं या यों कहिए, एक की अनुपस्थिति में दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन व्यक्ति केन्द्रित सत्ता स्वयं में भीषण अभिशाप है-

"सत्ता के गोमुख पर बैठकर / उनके सारे शक्ति जलों को / अपने ही अभिषेक के लिए /
सुरक्षित रखना-यह कौन-सा दर्शन है लक्षण?"

यदि राज्य और न्याय तत्त्वदर्शी नहीं बन पाएँगे, तो ये जनता के लिए भयोत्पादक बन जाएँगे। कौन इसमें विश्वास करके प्रजा बनकर रहेगा? राज्य को सामूहिक आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक होना चाहिए। ये दोनों राजपुरुषों से ऊपर है, उनकी इच्छाओं के अनुचर नहीं-

"राजभवनों और राजपुरुषों से ऊपर / राज्य और न्याय को / प्रतिष्ठापित होने दो भरत।"

वैयक्तिकता का विसर्जन सामाजिक अर्थवत्ता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। यदि हम व्यक्तिगत हित को शीर्षस्थ कर देंगे तो सम्पूर्ण सामाजिक संरचना ही लचर दलील का रूप धारण कर लेगी। इतिहास-पुरुष बनने के लिए ऐतिहासिकता का निर्माण करने के लिए पति-पत्नी सम्बन्धों के बीच में भी अन्धी बुभुक्षित प्राचीरें आ खड़ी होती हैं। व्यक्तित्व का हाहाकार भरा यह दुर्दान्त मूल्य राम के प्राणों को मथ देता है-

'व्यक्ति की / यह कैसी स्वत्त्वीय उपादेयता है सीता! कि काल / उसे उपनिषद् में /
मात्र एक वाक्य के रूप में उपयोग कर / अज्ञात शून्य में फेंक देता है।'

सीता भी चुप कैसे रहती? वह कह उठती है-

"आप में कब वैयक्तिक्ता थी आर्य पुत्र? किस दिन / हमने नितान्त वैयक्तिक जीवन जिया?"...
राजभवनों में / व्यक्ति नहीं / इतिहास पुरुष चला करता है आर्यपुत्र।"

राजा के लिए व्यक्तिगत मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं। घर-परिवार का कोई मूल्य नहीं होता। उसकी दृष्टि व्यक्तिगत नहीं, वरन् समष्टिगत होती है। सीता का कथन-

"इतिहास के निर्माता / घर-परिवार की भाषा में बातें नहीं किया करते।"

कितनी करुणा से भरा है। फिर भी वह अपने निर्वासन को स्वीकार करके प्रसन्न है; क्योंकि वह समस्या सीता की अपनी समस्या नहीं, राम की समस्या नहीं, राष्ट्र की मर्यादा का प्रश्न बनकर आ खड़ी हुई है-

"मुझे और / इस राज्य को भी त्यागकर / उस अकेले व्यक्ति के प्रश्न का समर्थन करना चाहिए /
मैं या / कोई भी / राष्ट्र-न्याय और सत्य से बड़ा नहीं।"

जनमत की शक्ति ही राष्ट्र ही वास्तविक शक्ति है। सत्य और न्याय की सलिला जनमत से होकर प्रवाहित होती है।

"किसी की वैयक्तिकता नहीं / वरन् / सम्पूर्ण की समग्रता ही राष्ट्र है।"

राष्ट्र सर्वोपरि है, राम का कथन-

'राज्य या न्याय राष्ट्र की इच्छा/ आशा-आकांक्षा, सम्मान और गरिमा के प्रतीक होते हैं/न कि किसी व्यक्ति विशेष के' में कितनी सार्थकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता नहीं। व्यर्थ का दोषारोण लक्ष्मण को अप्रिय लगता है। उसके विचार में-

"स्वतंत्रता का अर्थ / अराजकता नहीं होता / अराजकता / अपराध से  भी गम्भीर होती है।"

परन्तु राम का पक्ष दूसरा है। यदि विरोधी अकेला हो, तो इस अकेलेपन के कारण उसकी सत्यता पर सन्देह होने लगता है। वह इतिहास के प्रवाह में अकेला पड़ जाता है। यह अकेला रह जाना, उसका दोष तो कदापि नहीं; परन्तु चुप रह जाना एक प्रकार की कायरता है। राम सभाजनों को कहते हैं-

"स्वाधीनता या / अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग/यदि अनुत्तरदायित्वपूर्ण वाचालता है,
तो महानुभावो! कायरतापूर्ण सहमति / उससे भी बड़ा दुरुपयोग है।"

राम का निर्णय और सीता की सहज स्वीकृति लोकमर्यादा की स्थापना के लिए है। व्यक्तिगत सम्बन्ध प्रेमादि दूर कहीं सिसकते रह जाते हैं। रथ पर जाती हुई सीता को देखकर राम केवल आह भरकर रह जाते हैं। न्याय को लांछन से बचाने के लिए अमानुषी आचरण भी किया-

"आसन्न मातृत्व की दुर्वह स्थिति में /प्रिया को /किस प्राप्ति के लिए निर्वासित किया राम?
आसन्नप्रसवा गौ के साथ नहीं करता।"

प्रिया, प्रतिमा मात्र बनकर रह जाए और स्वयं इतिहास पुरुष, राम इन्हें जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटनाएँ करार देते हैं; लेकिन लोक हेतु सब स्वीकार्य है। राम व्यक्ति तो थे ही नहीं, थे तो पुराण पुरुष ही।

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टिप्पणियाँ

Imran Khan 2022/06/30 05:11 PM

Sandhrab

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