अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्वप्न

उस रात दीपा जल्दी सो गई। उसके बच्चे व्यस्क होने की उम्र से पहले की अवस्था में थे, सारा दिन उनके साथ सी.एन.ई. में घूमते-घूमते वो काफी थक गई थी। महेश किसी आफिस की जरूरी कान्फ्रेन्स के लिए मौन्ट्रियाल गये हुए थे। थक कर शाम घर आई थी तो थकान कई कारण थे, पहला तो समझ लें कि बच्चों की उम्र दूसरा समझ लें कि उसके साथ महेश नहीं था, तीसरा समझ लें कार चलाकर भीड़-भाड़ में 1 घंटे फँसे रहना।

जब घर पहुँची तो सात बज चुके थे उसने बच्चों को नहा लेने को कहा और खुद अपने गुसल में जाकर नहाने लगी। नहाने के लिए उसने एक ज़्यादा तेज महक वाला साबुन निकाल लिया और सर धो कर नहाने के काम में लग गई। जब नहा रही थी तभी पानी बौछारों ने से हल्का सा रोमांचित कर दिया। वो अचानक महेश के बारे में सोचने लगी, फुहार के आगे चेहरा करके हाथ से बालों को खुद सहलाने लगी, बाल शैम्पू कन्डीशनर से धुले साफ रेशम से मुलायम हो चके थे। उसने अचानक फिर से शरीर पर साबुन लगाना शुरू कर दिया। शायद दीपा आधा घन्टे तक स्नान करके जब बाहर निकली तो देखा बच्चे टी.वी. के आगे बैठे थे। किसी ने नहाया नहीं था। उसे क्रोध आ गया। उसने फौरन महेश को फोन मिलाया। वो अजीब तरीके से मन में छटपटा सी रही थी। उसने जैसे ही महेश की आवाज़ सुनी तो रुआँसी होकर बोली- “तुम कब आ रहे हो, मैं और अब इन बढ़ती उम्र के बच्चों को नहीं अकेले सम्हाल सकती - सुनते ही नहीं, बस हर वक्त उन्हीं की इच्छाएँ पूरी करते रहने के अलावा, मेरा कोई अस्तित्व है या नहीं। ये पूरी मेरी जिम्मेदारी तो नहीं? तुम कहाँ हो?”

उधर महेश शायद काम जल्दी पूरा कर लेने की हालत में था। पास ही सहयोगी भी थे,सह-निर्देशक भी थे। उसे जल्दी में कोई उत्तर ना सूझा, जाने क्यों कह दिया दो दिन और लग जायेंगे - बस फोन रख दिया। वो भी थका हुआ था, घर का खाना नहीं, घर का आराम नहीं, वर्क-लोड इतना या कि भागा-भागी में कभी ‘कॉफ़ी-डोनट’

तो कभी सेण्डविच सलाद लेकर खा लिया। उसे दीपा के हाथ की गरम दाल सब्जी की याद सताती थी। वो सोचता कि कुछ ऐसा हो जाए कि ये टूरिंग की जॉब ना करनी पड़े बस मुख्यालय में ही रहे, बाहर का काम कोई दूसरा लड़का देख लिया करे जो अकेला हो या जिसे आए दिन यात्रा करने की इच्छा हो।

दीपा की शादी को अभी 15 साल ही हुए थे ओर उसकी शादी की सालगिरह भी आने वाली थी। वो अपने मन में सोचती कि दूसरे दिन से ही महेश उसको फोन करके बताएगा कि उसके बिना कितना अकेला लग रहा है। नींद जल्दी नहीं आ पाती, या जल्दी काम खत्म होते ही आने की बात करेगा पर ऐसा कुछ नहीं होता अबता ये उनका मिलना बिछुड़ना एक क्रम बन गया था। बच्चे भी अभ्यस्त हो गये थे। पर जब इस तरह से बात पूरी किए बिना ही महेश ने फोन रख दिया तो उसकी (दीपा) दु:ख भरी स्थिति में वो रो पड़ी। बच्चे बारी बारी से उठ कर नहाने चले गये। उनको अपनी गल्ती का हल्का सा एहसास तो हुआ पर दीपा चौके में आकर कुछ खाने पीने का प्रबन्ध करने लगी। टेबल पर रख कर खुद कुछ खाया और सोने चली गई - नींद जल्दी ही आ गई, रो चुकने के कारण आँखें जल रहीं थीं पानी पिया और शरीर निढाल हो गया। स्वप्न में क्या देखती है एक बड़ा सा कमरा है वो उसी का था और एक महिला जा कि उसके साथ काम करती थी उसके पास आई और कहने लगी मुझे मार डालो मैं और सहन नहीं कर सकती, मेरे पति मुझे छोड़ देने की सोच रहे हैं। दीपा मुझे मार डालो। दीपा ने उसे मार डाला, बस क्या था बारी बारी उस दरवाजे पर दस्तक होती और उसके भाई-बहन, मित्र-सम्बन्धी रिश्तेदार उसे उस भीड़ में दिखाई देने लगे। सभी किसी ना किसी चीज से बचने के लिए या किसी ना किसी के भय से या कुछ ना मिल पाने की पीड़ा से दु:खी थे और जीवन का अन्त ही उन्हें एक सफल सरल अवस्था लग रही थी। उन्हें जब पता चला कि उस कमरे में एक स्त्री है जो मार डालती है सभी उसके दरवाजे पर आ लगे थे।

दीपा के हाथ में एक मजबूत तेज चाकू था और वो जाने कैसे पकड़ कर गरदन पर फिराती है और आगे खड़ा व्यक्ति ढह सा जाता है।

हाँ इस ढह जाने के बाद वे सभी जीवित भी हैं क्योंकि सभी दीवारो के सहो लेकर निश्चिन्त व शान्त होकर बैठते जा रहे हैं। किसी को किसी की परवाह नहीं, कोई गर्मी सर्दी की दरकार नहीं सब निश्क्रिय से होकर बैठे हैं। मारे गये हैं परन्तु मुखड़ा सबका शान्त है जैसे सभी को माँगा वरदान मिल गया हो।

उन्हीं मर जाने वालों की भीड़ में उसे अपने बचपन की कई सहेलियाँ भी दिखीं। उसने उन्हें दरवाज़े के भीतर घसीट लिया, और पूछा तुम लोग यहाँ क्या कर रही हो? वे बोलीं हम लोगों को पता चला कि वहाँ एक स्त्री है वो सभी को जीवन के इन झँझटों से छुटकारा दिला रही है,तुम्हारे ऊपर आत्महत्या का आरोप भी नहीं लगेगा व उस स्त्री पर हत्या का अभियोग भी नहीं चल रहा, वो तो तुरन्त सबको मुक्त कर रही है। दीपा का चेहरा तन गया आँखें विस्फारित सी हो गईं। उसका अचेतन मन जागा और कमरे में वो अपने लोगों को खोजने लगी। जैसे उन्हें फिर से जीवित करके वो बाहर का रास्ता दिखा देगी। परन्तु जिस चेहरे को भी वो ध्यान से देखती अजनबी का चेहरा ही होता, वो कुछ चिन्तित हो गई, बुदबुदाई, बोली मैंने तो इन्हें यहाँ नहीं बुलाया। मैंने तो इन्हें नहीं मारा कौन लोग हैं यह? क्यों आए हैं यहाँ? कमरे के एक कोने से कुछ लोगों के खूब जोर से हँसने की आवाज़ें आने लगीं। दीपा ने उधर देखा उसे अपनी माँ व नानी दिखाई पड़ीं, दीपा वहीं चल पड़ी। वो छोटा सा कमरा भरा हुआ था और उस कोने तक जाने के लिए दीपा को बड़ा प्रयास करना पड़ा, सावधानी से लोगों के बीच से निकलते हुए वो माँ के पास पहुँच गई। माँ कहने लगी, “ठीक किया तुमने जो सबको मुक्ति दिला दी इस दु:ख भरे जग से। सभी को कष्ट ही कष्ट है, जिसे देखो वहीं असन्तुष्ट है, जो पास है वो चाहिए नहीं, जो है नहीं उसी का रोना। बड़ी अव्यवस्था सी है। हर कहीं कोई सही कोई ग़लत है तुम अपने आप को देखो, पति है, बच्चे हैं, नौकरी है, घर है, सब स्वस्थ भी है पर तुम जीना नहीं चाहती, कोई कुछ नहीं कर सकता, परेशानी तो मन की है, तन घिसटता है। यदि दु:ख तन का हो तो मन रोता है क्या करे?”

उसके आसपास के लोग ध्यान से सुन रहे थे। वे मरे नहीं थे - मरने आए थे। उन्हीं के बीच उसे महेश का चेहरा दिख गया - वो चौंक पड़ी। अरे! महेश क्यों यहाँ चला आया, इसे क्या दु:ख है। महेश जब उसके निकट आया आर्त स्वर में बोला - हे कष्ट-निवारिणी देवी मुझे मुक्तकरो अब और नहीं, और नहीं!

दीपा एक खिड़की के पास ही खड़ी थी। उसने ऊपर दृष्टि डाली तो देखा सुन्दर नीला गगन है। उसमें पाँच श्वेत पक्षी उड़ कर उसकी तरफ ही आ रहे हैं और नीचे उतरने की प्रक्रिया में वे महात्मा बन गये। साधु वेश में हो गये। सहज धरती पे उतर आए और दीपा की ओर देख कर कुछ कहने लगे। दीपा को अब कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था, वो बेचैन हो कर खिड़की से बाहर जाना चाहती थी। किन्तु भीतर के लोग उसे पकड़े हुए थे और जाने नहीं दे रहे थे। शक्ति लगा कर किसी तरह दीपा खिड़की के बाहर आ गई। श्वेत पक्षी जो महात्मा में रूपान्तरित हो गये थे,उसने उन्हें पहचानने का प्रयास किया पर स्वप्न की लहरों दर लहरों के कारण चेहरा न देख सकी। केवल उसे आभास हुआ कि शान्त स्वर में उन लोगों ने कहा बेटी लौट जाओ अपने संसार में, भागना सम्भव नहीं, कर्म तो करने ही पड़ते हैं। उनके फल भी मिलते हैं, ये क्रम है जो ज्ञात नहीं कहाँ है आरम्भ, कहाँ है अन्त; फिर भी कर्म किये बिना ये कटता नहीं। अन्तरंग शक्ति को खोजो, उसके कहे पर चलो। कुछ भी झूठ नहीं, कुछ भी सत्य नहीं, सब मिथ्या है सब आलौकिक है, स्वर मद्धम हो गये फिर स्वर लुप्त होने लगे। और अचानक उसे अपने घर पर लगी घन्टी का स्वर सुनाई पड़ा। सुबह होने को थी। महेश आपने ताजे चेहरे व ताज़ी महक के साथ उसके बिस्तर के पास आ चुके थे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

स्मृति लेख

कविता - हाइकु

कहानी

सामाजिक आलेख

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं