अनबुझी प्यास
काव्य साहित्य | कविता भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
लबों की अनबुझी प्यास सुन कर,
चली आई हूँ तेरे होठों के किनारों तक,
तेरी आँखों की खिली चाँदनी में,
नहाने की आरज़ू ले कर।
वो हाथ जो, मैंने बढ़ाया है,
बढ़ा के साथ, तुम भी थाम ही लेना,
इसका गुमान ले कर,
बहती हवा जो मेरे केशों से खेलती है,
तेरे बेचैन हाथों की छुअन की तमन्ना लेकर,
आज ये पलकें, इतनी भारी सी हो गई हैं,
क्या तुमने मेरे अक्स से कोई सवाल कर लिया,
आँखों ने आँखों को कुछ इस तरह छू लिया,
दिलों ने तो जन्मो के वादे तक कर डाले,
आत्मानंद मेरे, क्या मैं भी, तेरे किसी क़ाबिल हो गई।
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