धड़कनों पर धड़कनें
काव्य साहित्य | कविता भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’3 May 2012
कोई पूछे मेरी धड़कनों से,
इन धड़कनों की कहानी,
जो दब सी जाती है तुम्हारी आहट से,
तुम्हारे ख़्याल से ही हाथ बालों से
उलझ उलझ जाते हैं।
इसी उलझन में बैठी दर्पण के आगे
खुद बातें दर्पण से करती हूँ तुम्हारी,
कभी मुस्कुरा कर खुद को
कभी तुम्हें देखती हूँ,
शृंगार कुछ कर पाती नहीं हूँ,
हर जगह तुम्हें ही पाती हूँ,
बिंदी कहाँ सजाऊँ, वहीं तुम्हारा चुम्बन है।
झुमके पहन पाना तो दूभर है,
लज्जा से कान- लाल हो आये हैं,
कपोलों की लाली बेहाल है,
आँखों से झरते आँसू, --काजल कहाँ सजाऊँ।
अरुणाभ हैं होठों की रंगत रसीली,
अँगुलियाँ काँपने लगती हैं,
कंगन पहन नहीं पाती,
कलाई पर तुम्हारी कलाई है।
कल्पना नाच उठती है,
मेरी माँग तुमने चुम्बनों से सजाई है।
अब मुझसे वेंणी तो गूँथी ना जायेगी,
तुम्हारी खुशबू बालों में लहराई है,
होंठों की बातें तो, आँखों से पूछो,
लज्जा से उसने पलकें झुकाई हैं।
होंठों के मिलने, और दूर होने से,
ये कैसी क़यामत आई है।
दिल के दरवाज़े पर ये कैसी दस्तक है,
कोई देखो तो, धड़कनों में धड़कने समाई हैं,
लो वो आ भी गये, दुलहन सज भी न पाई है,
देह में, मन में, मोंगरे की महक सी छाई है।।
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