बहना
काव्य साहित्य | कविता भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’1 Oct 2021 (अंक: 190, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
मैं बहने लगी हूँ, मंद पवन सी,
मैं बहना चाहूँ, शीतल जल लहर सी,
सखी तैरने में क्या रखा है,
अथक प्रयास में, दर्द भरा है।
जहाँ-तहाँ टकराती, ठोकर खाती,
व्यर्थ प्रवाह सहती जाती,
गंतव्य को देख न पाती,
व्यर्थ द्वंद्व में उलझा उलझी,
लहरों से लड़ती जाती हूँ।
सखी तैरने में क्या रखा है,
बहना चाहूँ शीतल जल सी,
बहने की कला भी कितनी
अद्भुत है, निराली सी।
प्रयास छोड़ दो
बहते जाओ, कहीं ठहर ना जाओ,
सबको अपनाओ,
किसी के ना हो जाओ,
हर क्षण नित नई लहर पर,
जीवन अर्पण करते जाओ,
मेरा क्या है, तेरा क्या है,
बहते जाओ बहते जाओ।
तिनके ने रक्षा की थी,
वन में जनक सुता की,
तुम भी तिनके सी बन जाओ,
तिनके को कौन रोक पाया,
तिनके से न किसी को भय,
तिनका तो बस बहता जाता,
तिनका तो बस बहता जाता,
तिनके को ना डूबने की चिंता,
तिनके को ना टूटने का डर,
उल्टा बहे, सीधा बहे, आड़ा बहे,
तिरछा बहे, बहता जाता बहता जाता,
निर्लिप्त पवन सा,
कहता जाता बहना ही है,
एक जीवन तत्त्व।
चिंता नहीं रंग खोने की ,
चिंता नहीं, रँग जाने की।
तिनका तो होता केवल तिनका,
बीच में आ जाए,
तो सब थमता।
सखी तैरने में क्या रखा है,
अथक प्रयास में दर्द भरा है,
तिनके साथ अब बहना सीखा।
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