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आसमान से गिरे खजूर पे अटके

तीन चार दशक पहले विवाह को लेकर, दहेज को लेकर अलग ही प्रकार की दुश्चिन्ताएँ माता पिता को सताती रहीं होंगी। परन्तु अब आज कहने को समाज आगे बढ़ गया है? पर खजूर पर अटक गया है यहाँ से गिरेगा तो कहाँ ठहरेगा परमात्मा जी ही बता सकते है।

उस वक्त केवल बेटों को पढ़ा लिखा कर खड़ा करना होता था। बेटियाँ स्नातक हो गई,जानो बड़ा तीर मार लिया उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। उस पर कहीं अंग्रेजी बोलने वाली हुई तो समझें करेला नीम चढ़ा अब ऐसा नहीं बड़ी-बड़ी पढ़ाई तो करती ही है होड़ लगी है, सबको पीछे छोड़ जाएगी ऐसा सोचती है। हर माँ गर्व से बताती है। उनके स्वावलम्बी होने पर गर्व प्रतीत करती है पिताओं का हाल ना पूछो। लेकिन जब शादी की बात आती है तो स्वावलम्बी होना जो गुण समझा जाता था ससुराल में कुछ अंश तक दुर्गुण में शामिल होने लागा है। तो ये दोहरी व्यवस्था दोहरी मानसिकता में हम फंस से गये हैं। कुछ उदाहरणों को छोड़ दे तो अधिकतर यही समस्या है कि अपने लिए कुछ, दूसरे के लिए कुछ और शादी में वर की ओर से चाहिए की सूचि में व कन्या की ओर से चाहिए की सूची में बड़ा विचित्र अन्तर है। जब तक एक+एक नहीं होगा बात बनेगी नहीं, होता ये है कि दोनों++होते हैं। बढ़ चढ़ कर सब कुछ होना होता है। पहले अधिकतर माता पिता व दादा दादी की इच्छाओं से विवाह हो जाते थे अब उस सूची में दो प्रमुख भागीदार सम्मिलित हो गये, वर-वधू। अब ६ या ८ लोगों की मनोकामनाएँ कैसे एक साथ पूरी हो सकती है, तो समस्याएँ, चर्चाएँ, विवाद, सब खट्टा मीठा सा सब होने लगता है।

पहले कन्या पति के घर गई तो गई, अब उसी प्रान्त में, उसी शहर में रहती कन्याएँ पराई तो नहीं हो पाती परन्तु रिवाज के चलते, लोग पसन्द भी नहीं करते इस नई व्यवस्था को। हालाँकि इससे फर्क क्या पड़ता है स्वतन्त्रता है सब परन्तु फिर भी.................

पहले वर पक्ष कहता था छाती ठोक के, इतना पढ़ाया लिखाया है अब कन्या पक्ष भी यही कह देता है। जब बुज़ुर्गो के स्वाभिमान अंहकार में कमी नहीं आई अभी तक तो नवयुवकों युवतियों की भला कौन कहें। अलग ही प्रकार भी नई असुरक्षा भावनाओं ने भी जन्म ले लिया है। जो समाज सुधारने के लिए कानूनी सुविधाएँ दी गईं उनका, पैंतरे लगा कर दुरुपयोग भी आरम्भ हो गया। लो अब और समस्या बढ़ने लगी। हर एक विवाहित जोड़ा गंठबन्धन में बंधता बाद में है,निकल लेने के रास्ते पहले पक्के कर लेता है। नामी बदनामी का कोई भय नहीं। अपने पसन्दीदा खेमे में रहो, लोगो को “नन आफ योर बिजनैस” कह कर चुप करवा दो।

रही लेने देने की बात, तो पहले तो कुछ कम ज्यादा हो भी जाए, माँ बाप भावनात्मक चादरों के नीचे कुछ का कुछ कहें, कुछ का कुछ दे दें ले लें। परन्तु अब तो एक स्तर निर्धारित है उतना तो करना ही है ‘अवेलेविल्टी’ बहाना नहीं चलेगा। शादी १ साल बाद होगी, जब सब अच्छी तरह से प्लान (नियोजित) कर लिया गया होगा, कोई बहाना नहीं चलेगा। देश-विदेश से सब सामान आएगा। सब कुछ चर्चा का विषय होगा। विवाह जिनका होना हो उनकी छोड़ो निमंत्रित अतिथिगणों के घर परिवारों में भी ५-६ जोड़े नए कीमती, तैयार किए जाते है। क्योंकि ‘फंक्शन’इतने होते हैं तो?

पहले घर ही शादी-स्थली होती थी अब कार्ड (निमंत्रण पत्र) में तीन-चार पत्र जैसे होते है। संगीत फलाँ जगह। मंडप विवाह फलाँ जगह, शादी के बात दम्पति स्वागत समारोह फलाँ हॉल में। उसमें भी काफी अव्यवस्था रहती है हर जगह के मान चित्र बनाओ (मैप) साथ ही ये पक्का करो कि सब लिफाफों में सब पत्र रखें गये कि नहीं इतनी व्यवस्था करने में लोग भूलते जा रहे हैं कि ये शुभ कार्य है जरा केसर या हल्दी के छींटे तो र लें।

हर कदम पर चित्र खिंचना, खिंचवाना आवश्यक होता जा रहा है उसमें हर घड़ी (महूर्त) विलम्ब व असुविधा शादी क्या है फिल्मी शूटिंग समझिए। हर कोई कहता है (चीज़ प्लीज़) अर्थात असली भाव छुपा लो हर वक्त प्रसन्न मुद्रा में रहो वरना तस्वीरें बिगड़ जाएँगी। तस्वीरों पर (स्टिल व मूवी) जाने कितने हज़ार डालर व्यय किए जाते हैं परन्तु शादी के २ सप्ताह बाद उसकी किसी को सुधि नहीं एक डिब्बे में बन्द रोते हैं। क्योंकि कुछ बदला नहीं है इन्हीं तस्वीरों को लेकर कहो, कोई वाद-विवाद ही ना हो चुका हो। लेकिन रिसेप्शन पर जो मूवी बनाई जाती है उसका कई बार ये देखा गया है कि उद्देश्य होता है कि फलाने जो आए थे क्या कैसे आए थे,क्या लाए थे? कौन कितना डाँस कर सका चूँकि अत्याधिक व्यय किया जा रहा है तो कैमरे के जरिए पूरा कुछ कैप्चर तो कर लेना।

हाँ एक बात और खाने पीने की व्यवस्था उत्तम होनी चाहिए। इसके चलते खाने में मांसाहारी यदि नहीं रखा गया तो एक बात चल पड़ी है कि ये भी कोई शादी थी। जो गठबन्धन पवित्र कहा जा रहा है वही अनर्थ से प्रारम्भ करने का चलन। तकलीफें तो पल्लू में बाँध कर हम स्वयं दे रहे हैं मंगल का आशीष रह ही कहाँ गया। ऐसा थोड़े होता है हमारा मंगल होगा दूसरे का अमंगल कर के। खैर स्वतन्त्र समाज है कोई नियन्त्रण तो है नहीं। पर बात विचारणीय अवश्य है।

अन्त में नाचो गाओ खुशियाँ मनाओ मित्रो पर किसी का दिल दुखाओ ना कि घर का मुख कर के चल पड़े हैं गौर से देख लो, पीछे पछताने से क्या लाभ चलन के नाम पर कुछ भी अपनाते चले जाना बड़ी बुद्धिमानी नहीं होगी। बहुत सी बातें जो कल उचित थी आज भी है केवल समझ कर, चुन कर चलना है।

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