बावली पवन
काव्य साहित्य | कविता भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’15 Oct 2021 (अंक: 191, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
मैं इस उपवन की पवन बावली बन गई,
पुष्प मेरे अतिथि व कलिकाएँ सहेली बन गईं,
बँधना तो नागवार था,
पर इस बगिया में बँध गई,
हर पल्लव से, हर डाली से,
हर कोंपल से, हर हर कली से,
मैं प्रातः से संध्या तक खेलती खेल रह गई,
जिस पुष्प ने जो दिया,
उसी को लेकर बह गई,
कलियों के घूँघट खोलना एक पहेली बन गई,
मैं इस उपवन की पवन बावली बन गई।
यहाँ तक कि सिंचती भूमि की गंध समेट रह गई,
बँधना तो नागवार था,
पर इस बगिया में रह गई।
कोई देखे तो मेरा बावलापन,
कोई देखे मेरी मस्त लहर,
जिसके पास से गुज़रती हूँ,
एक प्यार की पुकार,
एक मदहोश नज़र,
एक उलाहना भरी
एक तीखा व्यंग्य,
सब कुछ था इतना रंगीन,
मैं उसी में रंग रँग गई,
तुम पूछोगे, तुमने रंग कैसे देखे,
तो तुम जानो—
उनके कोमल स्पर्श ही उनकी वाणी है,
और मेरे अदृष्य दृग ही मेरी सिद्धि,
किंतु मैं कभी भी इधर-उधर नहीं करती हूँ,
जहाँ जो मिलता है, हँसती हूँ,
आगे बढ़ जाती हूँ,
ना पिछ्ला, ना अगला,
केवल वर्तमान में जीती हूँ,
पवन के झकोरे कभी शीतल,
पवन के झकोरे कभी नरम,
पवन के झकोरे कभी तीव्र,
पवन के झकोरे कभी मध्यम,
बावली पवन हूँ,
कभी इधर हूँ, कभी उधर हूँ
हर पुष्प की कहानी, हर पुष्प की जवानी,
कलियों का मचलना,
भोर की रवानी,
शाखों पर बैठना, पल्लवों से उलझना,
यही बने कारण,
इन्होंने बनाया मुझे पागल,
मैं बनी पवन बावली,
मैं बनी पवन बावली॥
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