सन्तोष - एक सोच
आलेख | सामाजिक आलेख भुवनेश्वरी पाण्डे ‘भानुजा’3 May 2012
एक दिन ऐसे बैठे-बैठे सन्तोष करने का मन हो गया। तो बस सन्तोष करने लगे इस ४० वर्ष की अवस्था तक आते-आते बहुत से रंग देख लिए। बहुत कुछ पाया, बहुत कुछ खोया। अब इस समय खोने और पाने की सूची तो नहीं बना रहे बस जाने क्यों अत्याधिक सन्तोष करने का जी हो रहा है भगवान का धन्यवाद करने का मन है तो वही करेंगे अब।
सन्तोष है कि हम जीवित हैं, सन्तोष है कि हमारे पास अपने पति साथ है। सन्तोष है कि दो बच्चे हैं सन्तोष है कि पुत्र व कन्या दोनों है। वे स्वस्थ व प्रसन्न हैं। सन्तोष है कि हम स्वस्थ हैं व मेरे पति स्वस्थ हैं। हम सब साथ में हैं, अपना पकाया भोजन करते हैं। अपने द्वारा कमाया व लाया भोजन करते है। भोजन के बाद हँस बोल लेते हैं। अपने हाथ से खाते है इस बात का सन्तोष है अपने घर में जाते है ये कितनी बड़ी बात है किसी पर निर्भर नहीं। अपने बर्तनों में खाते है खुद ही बर्तन धो लेते है किसी को कोई बेगारी हमारे लिए नहीं करनी पड़ती। ना किसी नौकर का इन्तज़ार ना उसकी उल्हाना। किसी से कुछ लेना नहीं किसी को कुछ देना नहीं इस अर्थ में कि, उधार नहीं, वैसे देना चाहो तो उसकी कोई सीमा नहीं देने वाले ने क्या कुछ नहीं दे डाला इसी धरती पर; हम तुम संसार में बँधे क्या दे पाएगें। सच्चा मन तो दे नहीं पाता इन्सान कई बार, और क्या देना? कभी-कभी तो देना, एक मुस्कुराहट देना तक कठिन हो जाता है।
तो संतोष है कि, अपना घर अपने बर्तन अपना बिस्तर अपनी नींद क्या कुछ नहीं है हमारे पास। पर कभी-कभी मन प्रश्न करता है कि क्या ये तन मन अपना है सच में। या योंही इसे अपना समझ कर उलझे रहते है। कहाँ है अपना? कभी किसी के लिए कभी किसी के लिए,इसके लिए उसके लिए अच्छा करने व सोचने में लगाए रखा इस तन मन को। कभी माता पिता के अच्छे के लिए, कभी पति व उनके घर वालों के भले के लिए, कभी बच्चों के कल्याण के लिए निरंतर प्रयन्तशील रहे। इस सब में इतना अन्दर तक उतरते रहे कि अपने उबार का कोई प्रयत्न नहीं किया अब इच्छा है अपने लिए कुछ कर लें। अपने लिए माने अपने अन्दर जो है उसकी सोचे उसी ओर जाए जहाँ से आए थे। उसी से मिलें जिससे मिलना परम शान्ति दायक है वापस लौटने की शुरूआत करे सफ़र लम्बा है, कठिन भी, बिना अन्दर जाए नहीं कर पाऐंगे पूरा। अन्दर व वापस जाने के लिए पहले इस घर के (शरीर) सब दरवाज़े खिड़कियाँ बन्द करनी पड़ेंगी। कभी जब बन्द कर के साधना में रहें। दूसरों को तो पता नहीं होता वे उन्हें खोल देते हैं। तब मन अस्थिर हो जाता है, कोई बड़े ज्ञानी साधक तो है नहीं कि सब कुछ नियंत्रण में है, पर सन्तोष तो ये है कि इस ओर जाने की मन में प्रक्रिया तो शुरू हो गई है। जाग तो गये भाग्य से वरना क्या होता।
इतने ज्यादा सन्तोष को तुम निराशावादिता ना कह देना। बड़ी सूझ-बूझ से इसे अपनाया है। जो इतनी भाग दौड़ चल रही है वो और क्या है यही सब अत्याधिक आशावादिता तो है। जिसे देखो भाग रहा है कभी-कभी तो पाया है कि जिसके लिए भाग रहे होते हैं उसे भाग्य में खुद ही पाँव के नीचे दबा कर आगे बेतहाशा दौड़ने लगते हैं और वो दौड़ कभी खत्म ही नहीं होती। सम बड़ा सुन्दर शब्द है सभी बुद्धिमान इसे जानते समझते हैं। अति सदैव विनाशकारी ना भी हो सदा कल्याणकारी नहीं रहा। तो सन्तोष है कि अभी बुद्धि बाकी है सोचने समझने की। प्रभु भी कृपालु कितने है। शरीर में सभी जरूरी चीजें दो दो दे दीं। एक खराब हो जाए तो दूसरा उपयोग में लायें। एक हाथ खराब है तो दूसरा ठीक है एक पाँव में समस्या है तो दूसरा सहारा बनेगा, दिल, दिमाग बड़ी मज़बूत चीज़ें दी है। जिन्हें तुम जितना चाहो कमज़ोर बना लो, जितना चाहे मजबूत बना लो। कभी दिल से काम लो, कभी दिमाग से काम लो। एक ही से काम हमेशा मत लो। जब जैसे जरूरत पड़े।
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