अवसाद
काव्य साहित्य | कविता अमित राज श्रीवास्तव 'अर्श’1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
स्मृतियाँ क्षीण होती दृष्टि में,
जैसे सांध्य की लालिमा जल में समा जाती है,
हर आकांक्षा, हर स्वप्न,
तृण-तुल्य हो बिखर गया है।
आशा, जो कभी जीवन की संपदा थी,
अब भ्रामक मरीचिका बन चुकी है।
आत्मा के अंतर्मन में–
वेदना का आलोक प्रज्ज्वलित है।
यह चिर शून्यता, यह अकथनीय मौन,
मानो एक अनन्त रात्रि का विस्तार हो,
जहाँ सुबह का कोई संकेत नहीं,
और हर प्रकाश अंधकार में विलीन हो गया है।
क्या इस शून्यता का कोई छोर है?
या यह व्यथा ही जीवन का शाश्वत सत्य है?
प्रश्न व्याप्त है, उत्तर मौन है,
और अस्तित्व अपने ही वलयों में सिमट गया है।
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