बदलते दिनाँकों की तरह
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. खेमकरण ‘सोमन’1 Feb 2025 (अंक: 270, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
संग्रह: बदलते दिनाँकों की तरह
विधा: कविता
कवि: राजकुमार कुम्भज
प्रकाशक: समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून
संस्करण: 2024
अमेज़न लिंक: https://amzn.in/d/dw3Z16K
मैं वक़्त का धोबी हूँ धोता हूँ मैल
मुझे धोने दो मैल। [मुझे धोने दो मैल, पृष्ठ 16]
सुप्रसिद्ध कवि राजकुमार कुम्भज ने कहा कि समय के साथ समय, समाज और देश में इतना परिवर्तन हुआ कि कभी-कभी लगता है कि मैं जीवित भी हूँ या नहीं। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि वर्तमान में देश समाज के मुद्दे पर कवि पूर्णतः आत्मसमर्पण किए बैठे हैं। बहुत चिंता का विषय है कि इस वक़्त जब देश को कवियों की ज़रूरत है, तब वे निस्तेज और ढलान पर हैं:
फँस गया हूँ मैं
इस ओर उस के
महान बीच
समझ नहीं पा रहा हूँ
कि शब्दों में वह ताक़त नहीं रही
या
कि बूढ़ी हो गई है कविता?
[फँस गया हूँ, पृष्ठ 11]
हाल ही में समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून से राजकुमार कुम्भज का कविता संग्रह ’बदलते दिनाँकों की तरह’ प्रकाशित हुआ है। कविता के तेवर को देखते हुए कविता घर टीम की ओर से उन्हें फोन किया गया, और कविता पर उनसे संक्षिप्त बातचीत की गई।
[ लिंक कविता घर: https://www.facebook.com/share/19r32Ka2RW/? mibextid=qi2Omg]
राजकुमार कुम्भज ने बताया कि जब बत्तीस वर्ष वर्षीय युवा कवि थे, तब अज्ञेय के संपादन में सप्तक शृंखला का चौथा और बहु प्रतीक्षित संग्रह ‘चौथा सप्तक’ छपकर आया। इसमें अवधेश कुमार, राजकुमार कुम्भज, स्वदेश भारती, नन्द किशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम वर्मा और राजेन्द्र किशोर की रचनाएँ संकलित थीं। पाठक, कवि और शोधार्थी इस संग्रह को पंतनगर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में पढ़ सकते हैं, या ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म से ख़रीद सकते हैं। यह संग्रह उपलब्ध है:
मैं प्रेम की तलाश में निकला
तो मिलीं मुझे अनंत प्रेम की अनंत प्रतीक्षाएँ
मैं घृणा की तलाश में निकला
तो मिलीं मुझे अनंत घृणा की अनंत प्रतीक्षाएँ।
[मैं प्रेम की तलाश में निकला, पृष्ठ 99]
आठवें दशक में इमरजेंसी की बद्दुआएँ देश और लोकतन्त्र को डुबो रही थीं। बद्दुआओं की दृष्टि चौथे तार सप्तक पर भी थी। विशेषकर राजकुमार कुम्भज की कविताओं पर। अज्ञेय जी किसी समस्या में फँस न जाए, अतः आलोचक नामवर सिंह ने अज्ञेय को सुझाव दिया कि जून 1975 से ही सरकार द्वारा प्रतिरोध का एक-एक शब्द कुतरने की तैयारी है, अतः संग्रह [चौथा] सप्तक से राजकुमार कुम्भज की कविताएँ हटा दी जाएँ, लेकिन अज्ञेय भी अज्ञेय, वे बिलकुल भी नहीं माने। उन्होंने कहा कि चौथा सप्तक की योजना में राजकुमार कुम्भज शामिल हैं, अतः उनके बिना इस संग्रह की कल्पना भी मुश्किल है। इस प्रकार वर्ष 1979 में यह संग्रह प्रकाशित हुआ।
तो यह थी नए कवि के प्रति वरिष्ठ कवि का विश्वास और अपनी बात पर टिके रहने की प्रतिबद्धता। यह आचरण ही किसी कवि के क़द को ऊँचा उठता है:
बूँद हूँ
समुद्र समुद्र रचता हूँ
तुमसे मिलता हूँ
तो तुम्हारे मरता लिए हूँ।
[बूँद हूँ, पृष्ठ 38]
कविता घर के पाठकों को सूचित करना चाहते हैं कि कविता पोस्टर के लिए कविता घर किसी कवि-लेखक को फोन नहीं करता। हाँ, अपने कवि लेखकों को मैसेज या ईमेल अवश्य कर देता है, लेकिन ‘बदलते दिनाँकों की तरह’ संग्रह को पढ़ते हुए कविता घर टीम को लगा कि अपने कवि राजकुमार कुम्भज से संवाद करना चाहिए। हमने किया भी:
अगर मैं
सिर्फ़ अपना ही दुःख सहता रहूँगा
तो दुःख दूसरों का सहूँगा कैसे?
[अगर मैं, पृष्ठ 75]
समय साक्ष्य प्रकाशन देहरादून से प्रकाशित ‘बदलते दिनांकों की तरह’ संग्रह में कुल 72 कविताएँ संगृहीत हैं। इन कविताओं से जुड़ाव स्वतः ही होता चला जाता है:
दिन गए
बीते दिनों में,
बीते दिनों की तरह
आटे में नमक की तरह
शराब में बर्फ़ की तरह
धूप में साए की तरह।
[दिन गए, पृष्ठ 30]
–
मेरी दिक़्क़त ये है,
कि मैं भीड़ से भिड़ सकता हूँ
लेकिन अपने एकांत से कैसे लड़ूँ?
[मेरी दिक़्क़त ये है, पृष्ठ 84]
राजकुमार कुम्भज, जिजीविषा से भरे हुए स्पष्ट भाषा के स्पष्ट कवि हैं। समय, समाज और संस्कृति को जाँचते-परखते जीते उन्होंने कविता को बहुत लम्बा वक़्त दिया है। इसी कारण प्रतीत होता है कि उनकी कविताओं की भाषा-शैली और शिल्प, आमजन, शोधार्थियों एवं पाठकों के बहुत निकट है। ‘बदलते दिनाँकों की तरह’ कविता संग्रह में भी यही सब कुछ दिखता है।
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