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माँ, डर और रास्ता

बच्ची उछलते-कूदते आगे बढ़ी जा रही थी, “वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है . . . तितली-तितली उड़ उड़, इधर-उधर मुड़ मुड़!”

एक जगह वह रुक गई। कविता बंद करके इधर-उधर देखने लगी। फिर इस निष्कर्ष पर पहुँची कि जैसा मम्मी ने बताया, वैसा तो इधर कुछ भी नहीं। यानी, वह अपना रास्ता भूलकर किसी दूसरे रास्ते पर आ गई है। यानी अब उसे पीछे की ओर जाना होगा। वह पीछे मुड़ गई। 

पीछे मुड़ते ही वह प्रसन्न हो उठी। उसकी प्रसन्नता ज़मीन-आसमान की तरह विस्तृत होती चली गई। माँ तेज़-तेज़ क़दमों से उसी की ओर चली आ रही थी। वाह, अब वह माँ की गोद में बैठेगी। मज़ा आ जाएगा। उसने तेज़ी से उस ओर दौड़ लगा दी। 

तड़-तड़-तड़ . . . माँ ने उसे पकड़कर तड़ातड़ तीन तमाचे जड़ दिए! वह समझ न पाई कि यह क्या हुआ? ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। सड़क पर चलते लोगों ने यह दृश्य देखा; किन्तु मार्मिक चीखों के पक्ष में कुछ बोलना, उन्हें अलोकतांत्रिक लगा। 

“कितनी बार समझाया है!” माँ ने डाँट पर लगाई, और एक गली के सामने लाकर उसे पटक दिया, “समझाया है न, बस यही गली से एकदम्मे चली आ। यही रास्ता, यही नीम का पेड़, यही लाल मकान, यही दुकान, यही चौड़ी गली और यही बिजली का खम्बा है। यह भी याद नहीं रहता है तुझे! मैं कब तक सुबह-शाम, दोपहर आऊँगी-जाऊँगी? अपना काम न करूँ? या तेरे पिता की तरह घर छोड़कर भाग जाऊँ कहीं।”

उस दिन माँ ने बच्ची को ख़ूब मारा। मारते हुए ही घर लाई। वह बेचारी डरी-सहमी रोती रही। असहज भी हो गई थी। उस दिन उससे होमवर्क भी हो न सका। कान में और बाँह में भी दर्द होने लगा। 

दूसरे दिन स्कूल से छुट्टी होने पर वह गुमसुम सी घर की ओर चल पड़ी। चलते वक़्त वह जो भी रास्ता देखती; उसे लगता कि सिर्फ़ यही रास्ता है जो, सीधे उसके घर की ओर जाता है। वह उधर ही मुड़ जाती। उसे विश्वास था कि आगे चलने पर उसे नीम के पेड़, लाल मकान, दुकान, चौड़ी गली और बिजली के खम्बे आदि दिखाई देंगे! लेकिन बहुत देर चलने के बाद भी ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दिया। 

दिखाई भी कैसे देता? बच्ची की आँखों में डर बसा हुआ था; घर का रास्ता नहीं। 

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