महाशरीफ़
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. खेमकरण ‘सोमन’1 Jul 2022 (अंक: 208, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
सिगरेट का लम्बा कश खींचते हुए पहले महाशरीफ़ ने दूसरे महाशरीफ़ से कहा, “यूँ तो सभी जानते हैं कि आप महाशरीफ़ हैं। शक की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन हक़ीक़त ये है कि आपकी सारी हक़ीक़त मैं जानता हूँ।”
दूसरे महाशरीफ़ ने दीवार पर ज़ोर से मूँगफली का एक दाना दे मारा जो दीवार से टकराकर सीधे उसके मुँह में आ गिरा। फिर उसने पहले महाशरीफ़ की ओर देखते हुए बहुत ही प्यार से पूछा, “क्या जानते हैं आप?”
“यही कि,“ पहला महाशरीफ़ बोला, “आप शरीफ़-महाशरीफ़ कुछ नहीं बल्कि महाहरामी हैं। महाचोर हैं, कुत्तों में महाकुत्ते हैं और कमीनों में महाकमीने हैं। बहुत सारे गुण्डे देखे हैं आपके। कहाँ नहीं है आपकी पैठ? विधानसभा, संसद और सरकार, हर जगह! आम आदमी का हक़ खाना और स्विस बैंकों में खाता खुलवाना तो कोई आपसे सीखे।”
अब दूसरे महाशरीफ़ ने पहले महाशरीफ़ को आश्चर्य से देखा। एकाएक वह ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाने लगा। फिर अपने चेहरे से एक-एक करके बहुत सारे नक़ाब उतार दिए। अब उसके चेहरे पर महाहरामी का असली नक़ाब ही रह गया था।
“बहुत ख़ूब!” वह हैरानी से बोला, “तुम मुझे पहचान गए वरना देश की जनता तो मुझे देवता समझती है। बड़े-बड़े पत्रकार, लेखक, कवि, वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, शिक्षाविद्, शोधछात्र और क्रान्तिकारी भी मुझे पहचान न सके। आख़िर, तुम हो कौन?”
“मैं . . . मैं . . .” कहते हुए पहला महाशरीफ़ हँसा। ख़ूब हँसा। फिर वह अपने चेहरे से एक-एक करके सारे नक़ाब हटाने लगा। पहले महाशरीफ़ का चेहरा देखकर दूसरा महाशरीफ़ बस इतना ही कह पाया, “जनाब, आप!”
दोनों महाशरीफ़ पूरी तरह से मिल चुके थे। दोनों महाशरीफ़ों के चेहरे पर अब एक जैसा नक़ाब था।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं