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बड़े साहब

बड़े साहब काम-काज में व्यस्त थे, और एक ग़रीब महिला अपने पन्द्रह पन्द्रह वर्षीय बेटे के साथ दयनीय स्थिति में उनके सामने खड़ी थी। 

बड़े साहब ने इस बार घूरकर देखा उसे। फिर ग़ुस्से में बोले, “अरे मेरी माता! जाती क्यों नहीं? क्यों एक घण्टे से सिर खाए जा रही है। कह दिया न, कल करा लेना साइन! देखती नहीं, अभी काम कर रहा हूँ।”

महिला बेचारी सहम गई। किशोर बेटे की आँखों की चमक भी धीरे-धीरे ग़ायब होने लगी। 

तभी एक व्यक्ति ने बड़े साहब के कक्ष में प्रवेश किया। 

“ओ हो! सहाय जी!” बड़े साहब आने वाले व्यक्ति को देखकर चहक उठे। खड़े होकर कहने लगे, “आइए-आइए बैठिए, कहिए कैसे आना हुआ?”

“बस आ ही गए।” प्रसन्नमुख सहाय जी अपनी फाइल खोलकर बडे़ साहब के सामने रखते हुए बोले, “यह ग़रीब बन्दा, आपको याद करते हुए और मात्र तीन-चार साइन करवाने के बहाने, आज आ ही गया।”

“तो ये लीजिए . . . ” कहते हुए बड़े साहब ने झट से तीन-चार साइन कर दिए। 

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