अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव

 (15 मई-परिवारों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस) 
 
  
टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव। 
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव॥

 

 (भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है। कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है। पत्थर होते हर आँगन में फ़ूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है। आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है। बड़े-बुज़ुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक़ पर रखकर निर्णय लेने लगे है। फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है। एक तरफ़ सुख में पड़ोसी हलवा चाट रहे हैं तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहे हैं। हमें ये सोचना-समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पाएँगे और ये समाज रहने लायक़ होगा।) 

 

आज सभी को एक संस्था के रूप में पारिवारिक मूल्यों और परिवार के बारे में सोचने-समझने की बेहद सख़्त ज़रूरत है और साथ ही इन मूल्यों की गिरावट के कारण ढूँढ़कर उनको दुरुस्त करने की भी ज़रूरत है। इसके लिए समाज के कर्णधार कवि/लेखकों/गायकों/ नायक/नायिकाओं/शिक्षक वर्गों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ राजनीतिज्ञों को एक संस्था के रूप में परिवार के पतन के निहितार्थ के बारे में भी लिखना और सोचना चाहिए। खुले मंचों से इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि इस गिरावट के कारण क्या हैं? और इस गिरावट से कैसे उभरा जा सकता है? युवा कवि सत्यवान सौरभ ने इस स्थिति को अपने शब्दों में कहते हुए सही लिखा है कि:

टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव! 
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव!! 

परिवार, भारतीय समाज में, अपने आप में एक संस्था है और प्राचीन काल से ही भारत की सामूहिक संस्कृति का एक विशिष्ट प्रतीक है। संयुक्त परिवार प्रणाली या एक विस्तारित परिवार भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है, जब तक कि शहरीकरण और पश्चिमी प्रभाव के मिश्रण ने उस संस्था को झटका देना शुरू नहीं किया। परिवार एक बुनियादी और महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसकी व्यक्तिगत और साथ ही सामूहिक नैतिकता को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिवार सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का पोषण और संरक्षण करता है। 

यह क़ानून का पालन करने वाले नागरिकों को प्रोत्साहन देकर समाज को स्थिरता प्रदान करता है। यह व्यक्ति में सामूहिक चेतना के निर्माण में मदद करता है। परिवार प्रणाली एक एकल, शक्तिशाली क़िस्में है जो सदियों से है, और विविधता के साथ समृद्ध, सामाजिक ताने-बाने को मज़बूत करती है समाजीकरण में यह भावनात्मक सम्बन्ध का प्रमुख स्रोत है, समाजीकरण और नैतिकता को आकार देने के तरीक़े से सही और ग़लत की भावना उत्पन्न करता है। बच्चों को उनके माता-पिता, उनके साथियों और उनके समाज के “सामाजिक सम्मेलनों” के अनुसार नैतिक निर्णय लेने के रूप में देखा जाता है। यह व्यक्तिगत चरित्र को मज़बूत करता है। यह आदत बनाने का पहला स्रोत है जैसे अनुशासन, सम्मान, आज्ञाकारिता आदि। 

नैतिक मज़बूती के साथ-साथ यह व्यक्ति के परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों को बिना किसी हिचकिचाहट के कठिन समय में भरोसा करने के लिए लचीलापन प्रदान करता है। यह कठिनाइयों से निपटने के लिए अनैतिक साधनों के उपयोग से बचाता है। परिवार लोगों को सांसारिक समस्याओं के प्रति स्त्री के दृष्टिकोण को विकसित करने में मदद करता है। मगर वर्तमान दौर में हम संस्था के रूप में परिवार में गिरावट का कटु अनुभव झेल रहे है। 

“घर-घर में मनभेद है, बचा नहीं अब प्यार! 
फूट-कलह ने खींच दी, हर आँगन दीवार!! 
स्नेह और आशीष में, बैठ गई है रार! 
अरमानों के बाग़ में, भरा जलन का खार!!” 

गिरावट के प्रतीक के रूप में आज परिवार खंडित हो रहा है, वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, आपसे भाईचारे में दुश्मनी एवं हर तरह के रिश्तों में क़ानूनी और सामाजिक झगड़ों में वृद्धि हुई है। आज सामूहिकता पर व्यक्तिवाद हावी हो गया है। इसके कारण भौतिक उन्मुख, प्रतिस्पर्धी और अत्यधिक आकांक्षा वाली पीढ़ी तथाकथित जटिल पारिवारिक संरचनाओं से संयम खो रही है। जिस तरह व्यक्तिवाद ने अधिकारों और विकल्पों की स्वतंत्रता का दावा किया है। उसने पीढ़ियों को केवल भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में जीवन में उपलब्धि की भावना देखने के लिए मजबूर कर दिया है। 

वर्तमान स्थिति में भड़काऊ रवैया परिवारों के बिखरने का प्रमुख कारण है। परिवार के अन्य सदस्यों को उच्च आय और कम ज़िम्मेदारी ने विस्तारित परिवारों को विभाजित किया है। उच्च तलाक़ की दर निसंदेह सामाजिक रिश्तों को निगल रही है। विवाह के टूटने का प्रमुख कारण एकल रवैये, व्यवहार और समझौता किए गए मूल्यों में प्रौद्योगिकी काला धब्बा है। युवा पीढ़ी का असामाजिक व्यवहार परिवारों को तेज़ी से नष्ट कर रहा है। आज के अधिकांश सामाजिक कार्य, जैसे कि बच्चे की परवरिश, शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, बुज़ुर्गों की देखभाल, आदि, बाहर की एजेंसियों, जैसे क्रेच, मीडिया, नर्सरी स्कूलों, अस्पतालों, व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों, धर्मशाला संस्थानों ने ठेकेदारों के तौर पर सँभाल लिए हैं जो कभी परिवार के बड़े लोगों की ज़िम्मेवारी होती थी। 

“बड़े बात करते नहीं, छोटों को अधिकार! 
चरण छोड़ घुटने छुए, कैसे ये संस्कार!! 
कहाँ प्रेम की डोर अब, कहाँ मिलन का सार! 
परिजन ही दुश्मन हुए, छुप-छुप करे प्रहार!!”

परिवार संस्था के पतन ने हमारे भावनात्मक रिश्तों में बाधा पैदा कर दी है। एक परिवार में एकीकरण बंधन आपसी स्नेह और रक्त से सम्बन्ध हैं। एक परिवार एक बंद इकाई है जो हमें भावनात्मक सम्बन्धों के कारण जोड़कर रखता है। नैतिक पतन परिवार के टूटने में अहम कारक है क्योंकि वे बच्चों को दूसरों के लिए आत्म सम्मान और सम्मान की भावना नहीं भर पाते हैं। पद-पैसों की अंधी दौड़ से आज सामाजिक-आर्थिक सहयोग और सहायता का सफ़ाया हो गया है। परिवार अपने सदस्यों, विशेष रूप से शिशुओं और बच्चों के विकास और विकास के लिए आवश्यक वित्तीय और भौतिक सहायता तक सिमित हो गए हैं, हम आये दिन कहीं न कहीं बुज़ुर्गों सहित अन्य आश्रितों की देखभाल के लिए, अक्षम और दुर्बल परिवार प्रणाली की गिरावट की बातें सुनते और देखते हैं जब उन्हें अत्यधिक देखभाल और प्यार की आवश्यकता होती है। 

आज ज़्यादातर लोग सार्थक जीवन का अभाव झेल रहे हैं। पारिवारिक प्रणाली के पतन का एक नुक़्सान ये है कि साझाकरण, देखभाल, सहानुभूति, सहयोग, ईमानदारी, सुनने, स्वागत करने, मान्यता, विचार, सहानुभूति और समझ के गुणों का कम होना है। हाल के दिनों में तनाव की सहनशीलता में कमी, चिंता और अवसाद जैसे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे बढ़ रहे हैं। परिवार प्रणाली बुज़ुर्ग सदस्यों से बात करने, बच्चों के साथ खेलने आदि से गहरी असुरक्षा की अभिव्यक्ति के साथ मानसिक रूप से व्यक्ति को राहत दे सकती है। परिवार प्रणाली में गिरावट अधिक व्यक्तियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के मामले पैदा कर सकती है। 

भविष्य में संस्था के रूप में परिवार में गिरावट समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाएगी। सकारात्मक पक्ष पर, भारतीय समाज में जनसंख्या की वृद्धि में कमी देखी जा सकती है और संस्था के रूप में परिवार में गिरावट के प्रभाव के रूप में कार्यबल का महिलाकरण हो सकता है। हालाँकि, संयुक्त परिवार से परिवार के संरचनात्मक परिवर्तनों को समझने की आवश्यकता है, कुछ मामलों में इसे परिवार प्रणाली की गिरावट नहीं कहा जा सकता है। जहाँ परिवार प्रणाली किसी सकारात्मक परिवर्तन के लिए संयुक्त परिवार से एकल परिवार में परिवर्तित होती है। वैसे भी भारतीय समाज भी परिवार के संलयन और विखंडन की अनूठी विशेषता का निवास करता है जिसमें भले ही परिवार के कुछ सदस्य अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग रहते हैं, फिर भी एक परिवार के रूप में रहते हैं। 

“बच पाए परिवार तब, रहता है समभाव! 
दुःख में सारे साथ हो, सुख में सबसे चाव!! 
अगर करें कोई तीसरा, सौरभ जब भी वार! 
साथ रहें परिवार के, छोड़े सब तकरार!!”

परिवार एक बहुत ही तरल सामाजिक संस्था है और निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। आधुनिकता समान-लिंग वाले जोड़ों (एलजीबीटी सम्बन्ध), सहवास या लिव-इन सम्बन्धों, एकल-माता-पिता के घरों, अकेले रहने वाले या अपने बच्चों के साथ तलाक़ का एक बड़ा हिस्सा उभरने का गवाह बन रहा है। इस तरह के परिवारों को पारंपरिक रिश्तेदारी समूह के रूप में कार्य करना आवश्यक नहीं है और ये समाजीकरण के लिए अच्छी संस्था साबित नहीं हो सकती। भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है। 

कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है। पत्थर होते हर आँगन में फूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है। आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है। बड़े-बुज़ुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक़ पर रखकर निर्णय लेने लगे हैं। फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है। एक तरफ़ सुख में पड़ोसी हलवा चाट हे हैं तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहे हैं। हमें ये सोचना-समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पाएँगे और ये समाज रहने लायक़ होगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!! 
|

(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…

अणु
|

मेरे भीतर का अणु अब मुझे मिला है। भीतर…

अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
|

वैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…

अपराजेय
|

  समाज सदियों से चली आती परंपरा के…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

काम की बात

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

स्वास्थ्य

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

दोहे

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं