अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी

 

आज एकल परिवार और महिलाओं की नौकरी पर जाने से दांपत्य सुख के साथ-साथ पारिवारिक सुख जो होना चाहिए वह नहीं है। बच्चे किसी और पर आश्रित होने के कारण टीवी मोबाइल में घुसे रहते हैं। कामकाजी पति-पत्नी के मामलों में यह बात सामने आ रही है कि दोनों ऑफ़िस के बाद घर में मोबाइल पर व्यस्त हो जाते हैं। सोशल साइट्स पर चैटिंग करना भी घर टूटने का एक बड़ा कारण बन रहा है। ऐसे मामलों में एक-दूसरे का हस्तक्षेप भी पसंद नहीं आ रहा है। अपने-अपने मोबाइल में घुसे रहते हैं जबकि उन्हें तब दांपत्य सुख के साथ जीना चाहिए। ऐसे में भौतिक सुख सर्वोपरि हो जाता है। माना कि कुछ शादीशुदा महिलाएँ अपवाद हो सकती है, पर शादीशुदा औरतों का नौकरी करना उनके परिवार को पूर्ण सुख दे पाता है या नहीं ये आज हमारे समाज की एक ज्वलंत व्यथा है। 

—प्रियंका सौरभ

आज की स्थिति ठीक उल्टी है। जब से पुरुष और नारी में बराबरी की बात चल पड़ी है। समान अधिकारों की बात चल पड़ी है। उन्हें शिक्षित करने और फिर शादीशुदा औरतों को भी नौकरी करने की बात चल पड़ी है। तब से बौद्धिक सुख में अपार वृद्धि तो ज़रूर हुई है किन्तु दोनों के बीच का आत्मिक सुख कहीं खो सा गया है। पति-पत्नी दोनों एक-दूजे में ख़ुशी खोजने के बजाय अपने दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलने में लगे रहते हैं। इस तरह जाने-अनजाने ख़ुशियाँ मिल भी जाती हैं। किन्तु क्या उनका आत्मिक सम्बन्ध इतना मज़बूत रहता है कि वह परिवार की मर्यादा बनाए रखने के साथ-साथ बच्चों का समुचित और सर्वांगीण विकास कर सकें। यहाँ पर सोचने की बात यह है कि आज अधिकांश बच्चे क्यों बिगड़ रहे हैं? क्यों उनका संतुलित विकास नहीं हो पाता? क्यों वातानुकूलित रूम में बैठे दंपती अपने-अपने टीवी और मोबाइल खोल कर बैठ जाते हैं? और खो जाते हैं रंगीन ख़्वाबों की दुनिया में। क़रीब का दांपत्य सुख क्यों बोरियत लगने लगा है? और क्यों बहुत जल्दी ही तो थकान में बदल जाता है, उनका अपना मधुर दांपत्य सम्बन्ध? 

क्यों आम जीवन में जी रहे दंपती के अपेक्षा नौकरीपेशा पति-पत्नी अभिमानी और संगीन भावनाओं के शिकार हो जाते हैं? शादीशुदा औरत और नौकरी के संदर्भ में सोचे समझे तो क्या शिक्षित औरतों को नौकरी की तभी ज़रूरत है जब पुरुष कमा कर उसे खिलाने-पिलाने और परिवार चलाने में असमर्थ साबित हो? ताकि नौकरी कर इससे शिक्षित औरतें घर परिवार को शिक्षित बना सकेंगी और सही से अपने बच्चों की देखभाल भी कर सकेंगी? या हम ये कहें कि यदि औरतों को इतना शौक़ है नौकरी करने का तब मर्द को चाहिए कि वह घर सँभाले। दोनों के किसी भी एक के अभाव में घर और परिवार एक मकान मात्र रह जाता है या रोटी दाल सब्ज़ी सब कुछ मिल जाता है किन्तु संस्कार नहीं मिल पाते। 

कामकाजी पति-पत्नी की एक-दूसरे पर निर्भरता ख़त्म होती जा रही है। दोनों स्वतंत्र होकर फ़ैसले लेते हैं, जिसमें कई बार ईगो भी टकराता है। साथ ही एक-दूसरे के लिए समय नहीं निकाल पाना भी भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में अलगाव का एक बहुत बड़ा कारण बन रहा है। अगर दोनों खुलकर बातचीत करेंगे तो उनके अंदर की बातें सामने आएँगी। वास्तव में यह तो सच है कि अगर स्त्री को अपना परिवार बचाना है तो अपने बच्चों के साथ-साथ सबका ध्यान रखना ही होगा। दाई नौकर के भरोसे बच्चों को छोड़ेंगे तो बच्चा ऐसा नहीं होगा जैसा कि माँ के साथ रहकर बनता है। आया एक माँ का दिल नहीं ला सकती। इसलिए शादीशुदा औरतों को ऐसे समय नौकरी करने नहीं जाना चाहिए ताकि वह प्यार में बच्चों को बड़ा करें। ताकि भटकती युवा पीढ़ी इस समाज को नहीं मिले, उनका पति चिंतित काम पर जाए। शाम को प्यारी पत्नी और बच्चों का मुस्कुराता चेहरा देख वह भी प्रसन्न हो। 

दोनों साथ मिलकर बच्चों की देख-रेख करेंगे तभी एक सुंदर समाज का निर्माण होगा। सपनों का भारत तैयार होगा। नौकरी करने के बाद शादीशुदा महिलाओं में आई अहम की भावना वर्तमान समाज के लिए घातक है। पति-पत्नी दोनों को समय नहीं है न एक दूजे के लिए और न बच्चों को देखने के लिए। ऐसे में आया के भरोसे अपने बच्चों का पालन करते हैं। आया जो ख़ुद के बच्चों को छोड़कर आती है तब दूसरों के बच्चों से कितना प्यार करेगी? यह सोचने वाली बात है। बच्चों की परवरिश ठीक नहीं होने के कारण आज वृद्धाश्रम की संख्या बढ़ रही है। दादा-दादी, नाना-नानी सेबच्चों को बच्चों को प्यार के साथ संस्कार भी मिलेंगे और वृद्धाश्रम की संख्या घटने लगेगी। 

आज एकल परिवार और महिलाओं की नौकरी पर जाने से दांपत्य सुख के साथ-साथ पारिवारिक सुख जो होना चाहिए वह नहीं है। बच्चे किसी और पर आश्रित होने के कारण टीवी मोबाइल में घुसे रहते हैं। कामकाजी पति-पत्नी के मामलों में यह बात सामने आ रही है कि दोनों ऑफ़िस के बाद घर में मोबाइल पर व्यस्त हो जाते हैं। सोशल साइट्स पर चैटिंग करना भी घर टूटने का एक बड़ा कारण बन रहा है। ऐसे मामलों में एक-दूसरे का हस्तक्षेप भी पसंद नहीं आ रहा है। स्वयं पति-पत्नी घरेलू काम या बच्चों पर कोई चर्चा नहीं कर पाते। अपने-अपने मोबाइल में घुसे रहते हैं जबकि उन्हें तब दांपत्य सुख के साथ जीना चाहिए। ऐसे में भौतिक सुख सर्वोपरि हो जाता है। माना कि कुछ शादीशुदा महिलाएँ अपवाद हो सकती है, पर शादीशुदा औरतों का नौकरी करना उनके परिवार को पूर्ण सुख दे पाता है या नहीं ये आज हमारे समाज की एक ज्वलंत व्यथा है। 

पति-पत्नी को एक-दूसरे को समय देना भी ज़रूरी है। अन्यथा रिश्ता टूटने की कगार पर पहुँच जाता है। पति-पत्नी के बीच ईगो भी एक बड़ा कारण बन रहा है। साथ ही ससुराल पक्ष कामकाजी बहू से अपेक्षाएँ भी पूरी रखते हैं, जिससे घर में झगड़े की स्थिति बन रही है। हालाँकि, ऐसे मामलों में काउंसलिंग कर पति-पत्नी के बीच की दूरियों को कम किया जा रहा है। इसलिए काम काजी पति-पत्नी एक-दूसरे से बातचीत जारी रखें और दोनों एक-दूसरे के लिए समय ज़रूर निकालें। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सांस्कृतिक आलेख

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

काम की बात

कार्यक्रम रिपोर्ट

दोहे

चिन्तन

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं