अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कहाँ लौटती हैं स्त्रियाँ? 

 

दिल्ली की एक साधारण सी हाउसिंग कॉलोनी में रहने वाली अनुपमा की सुबह हर दिन ठीक पाँच बजे शुरू होती है। अलार्म नहीं बजता, फिर भी उसकी आँख खुल जाती है। ऐसा लगता है जैसे वर्षों की आदत अब शरीर में समा चुकी हो। चाय का पानी गैस पर रखते हुए वो बालकनी में रखे गमलों को देखती है—कुछ सूखे, कुछ मुस्कुराते हुए। शायद वो गमले उसकी ही तरह हैं—कम बोलते हैं, पर सबके लिए जीते हैं। 

पति अभी तक सो रहे हैं, बच्चे भी। सासू माँ मंदिर से लौटकर तुलसी के पास दीपक जला रही हैं। अनुपमा रसोई में घुसती है, जहाँ समय एक और रूप ले लेता है—सबका टिफ़िन, दवाई, प्रेस किए हुए कपड़े और दिन की फ़ाइलें। सबकुछ क्रम में। सब कुछ तय। उसकी सुबह सिर्फ़ उसकी नहीं होती—वो सबके दिन की शुरूआत बन जाती है। 

उसका मन कई बार एक अजीब क़िस्म की बेचैनी से भर उठता है। कभी वह आईने में अपने चेहरे को देख़ती है, तो लगता है, यह वही चेहरा है जो कभी कॉलेज में कविताएँ सुनाया करता था? कभी दोस्तों के साथ ठहाके लगाता था? अब तो चेहरा एक मुखौटा बन चुका है, जिसमें भावनाएँ अंदर कहीं गहरी दब चुकी हैं। 

अनुपमा सचिवालय में सेक्शन ऑफ़िसर है। पद ठीक-ठाक है, तनख़्वाह भी। मेट्रो की भीड़ में रोज़ वो अपने जैसे कई चेहरों से टकराती है—कामकाजी स्त्रियाँ, जो बाहर जितना कमाती हैं, घर में उतना ही ज़्यादा खो देती हैं। ऑफ़िस में वो तेज़ काम करती है—समय से फ़ाइलें निपटाती है, मीटिंग में सुझाव देती है, जूनियर की मदद करती है। सब उसे एक “आदर्श कर्मचारी” मानते हैं। 

उसकी मेज़ पर हमेशा ताज़ा फूल होते हैं, जो वह ख़ुद सुबह लगाती है। ऑफ़िस में उसकी पहचान एक सुलझी हुई, दृढ़, और व्यवस्थित महिला की है। पर कोई नहीं जानता कि इस व्यवस्थितता के पीछे कितनी अव्यवस्थित रातें, गहरी थकान और अनसुने आँसू छिपे हैं। 

हर मीटिंग में वह मुस्कुराती है, पर जब टेबल के नीचे उसका पैर थकावट से हिलता है, तो कोई नहीं देख़ता। सहकर्मी जब लंच पर गपशप करते हैं, अनुपमा फोन पर बच्चों के स्कूल की चिंता करती रहती है—कभी यूनिफ़ॉर्म नहीं आया, कभी परीक्षा की तैयारी अधूरी है। 

जब अनुपमा शाम को घर लौटती है, तब उसकी असली ड्यूटी शुरू होती है। वो घड़ी उतार कर मेज़ पर रख देती है। यह उसका तरीक़ा होता है ख़ुद को याद दिलाने का—अब यह समय उसका नहीं है। ये घर का है। वो रसोई में घुसती है, और गैस पर तरकारी के साथ अपने सपनों को भी धीमी आँच पर रख देती है। 

अब उसके हाथ में माउस नहीं, सब्ज़ी का चाकू है। अब मीटिंग की चर्चाएँ नहीं, बच्चों के होमवर्क हैं। ऑफ़िस में उसे “मैडम” कहा जाता है, पर यहाँ वह सिर्फ़ “मम्मी” है—कभी बहू, कभी बेटी, कभी पत्नी। उसकी पहचान कई टुकड़ों में बँटी होती है, पर सबमें वो पूरी होती है। 

वह अपने कमरे की अलमारी खोलती है और वहाँ रखे पुराने शेरवानी के बक्से, बच्चों के खिलौने और एक डायरी को देख़ती है। उस डायरी में उसकी कई अधूरी कविताएँ हैं, जिन्हें उसने तब लिखा था जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ था। वह पन्ने पलटती है, कुछ पढ़ती है, फिर मुस्कुरा देती है। 

अनुपमा की थकान उसकी पीठ में नहीं, उसकी मुस्कान में होती है। जब वो सबको खाना परोस रही होती है, तब कोई नहीं देख़ता कि उसका मन कितना भूखा है—एक चुपचाप संवाद के लिए, एक गर्म चाय के कप के लिए जिसे वो अकेले पी सके। 

कभी-कभी वह खिड़की से बाहर देख़ते हुए सोचती है—क्या कोई उसके लिए भी कभी खाना बनाता है? क्या कोई उसके माथे पर हाथ रखकर पूछता है, “आज बहुत थक गई हो न?” पर नहीं, वह जानती है, उसे सबकी माँ, सबकी पत्नी, सबकी बहू बने रहना है। वो ख़ुद के लिए बस वो 5 मिनट चुरा पाती है जब सब सो चुके होते हैं। 

उसकी सहेली माया ने एक दिन कहा था, “तू रो क्यों नहीं लेती कभी?” और अनुपमा हँस पड़ी थी—“समय कहाँ है?” 

कई बार वो सोचती है—क्या वो सचमुच लौटती है? या सिर्फ़ चलती रहती है—एक रूप से दूसरे रूप में, एक भूमिका से दूसरी में। 

वो रसोई में लौटी है, पर ख़ुद में नहीं। वो गमलों के पास जाती है, जो अब भी प्यासे हैं। वो उन्हें पानी देती है। जैसे ख़ुद को सींच रही हो। वो अलमारी खोलती है—पुराने ख़त मिलते हैं, कुछ अधूरी कविताएँ, एक टूटी हुई चूड़ी। जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो रही हो। पर फिर किसी की पुकार आती है—“मम्मी!” और वो फिर लौट जाती है। 

उसकी रसोई में मसालों की ख़ुश्बू होती है, पर वह जानती है कि उसमें उसके अधूरे सपनों की गंध भी है। वह बच्चों के टिफ़िन तैयार करते हुए अपनी लिखी एक पुरानी पंक्ति याद करती है—“मैं माँ नहीं होती तो शायद कवि होती।” फिर ख़ुद से कहती है, “शायद माँ होना ही सबसे बड़ी कविता है।” 

अनुपमा जैसी स्त्रियाँ सिर्फ़ घर नहीं लौटतीं। वो ख़ुद को सबसे पहले छोड़ आती हैं। वो साँझ के दीये जलाने के लिए लौटती हैं, सूखे पौधों को पानी देने के लिए, बीमार माँ-बाप की देखभाल के लिए, रूठे बच्चों को मनाने के लिए। 

वो कभी थकती नहीं, या कहें कि थक कर भी थकान की इजाज़त नहीं लेतीं। उनके लिए रिटायरमेंट कोई विकल्प नहीं, क्योंकि उनके काम को कोई सरकारी कैटेगरी में नहीं गिना जाता। 

पति के लिए अनुपमा एक आदर्श पत्नी है, सास के लिए एक भरोसेमंद बहू, बच्चों के लिए सुपरमॉम। पर अनुपमा के लिए अनुपमा क्या है? शायद यही एक सवाल है जो हर स्त्री अपने भीतर चुपचाप पूछती है, हर दिन, हर रात। 

एक दिन ऑफ़िस से लौटते समय अनुपमा की सहेली माया मिली। माया ने कहा, “तू लिखती क्यों नहीं? तेरी आँखों में इतनी कहानियाँ हैं।”

अनुपमा मुस्कुरा दी, “वक़्त कहाँ है माया?” 

“बस 10 मिनट रोज़,” माया ने कहा। 

उस दिन रात को, सबके सो जाने के बाद, अनुपमा ने डायरी निकाली और पहली पंक्ति लिखी:

“काम से लौटकर स्त्रियाँ, काम पर लौटती हैं . . .”

फिर धीरे-धीरे वह कविता कहानी बनती गई। हर दिन की थकान शब्द बनती गई। वो लिखती रही—बच्चों की कॉपियों के बीच, सब्ज़ी काटते हुए, रात की चुप्पियों में। और फिर एक दिन, उसी डायरी से उसकी पहचान फिर से बन गई—“अनुपमा, लेखिका।” 

वह अब महीने में एक कविता प्रकाशित करती है। स्त्रियाँ उसके लेखों को पढ़ती हैं, मेल भेजती हैं—“आपने तो हमारी ज़िंदगी लिख दी।” अनुपमा तब मुस्कुराती है, जैसे उसे ख़ुद से एक छोटा-सा पुरस्कार मिल गया हो। 

स्त्रियाँ कभी लौटती नहीं, वे हर जगह होती हैं। अनुपमा की कहानी लाखों स्त्रियों की कहानी है—जो अपने सपनों को चूल्हे पर धीमी आँच पर पकाती हैं, जो ऑफ़िस से लौट कर घर की बैठक में ही नहीं, रिश्तों के हर कोने में फिर से खड़ी हो जाती हैं। 

वो लौटती हैं, पर ख़ुद के लिए नहीं। वो लौटती हैं सबके लिए—हर रिश्ते की दरार भरने, हर दर्द को छिपाने, हर उम्मीद को जिलाने। 

असल में स्त्रियाँ लौटती कहाँ हैं? वो तो वहीं होती हैं—हर समय, हर जगह, हर रूप में। 

अब अनुपमा जानती है कि उसका लौटना दरअसल एक और यात्रा का आरंभ है—जहाँ वो सिर्फ़ दूसरों के लिए नहीं, बल्कि अब अपने लिए भी धीरे-धीरे लौटने लगी है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 तो ऽ . . .
|

  सुखासन लगाकर कब से चिंतित मुद्रा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कविता

कहानी

दोहे

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

शोध निबन्ध

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं