अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

दस दिन का अहम

 

बड़ा भाई छठी कक्षा से ही घर सँभालने लगा था। पिता ज़िम्मेदारियों से बचते रहे, तो घर चलाने की ज़िम्मेदारी उसी पर आ गई। दिन में पढ़ाई और शाम को ट्यूशन पढ़ाकर उसने न केवल अपनी पढ़ाई की, बल्कि छोटे भाई की फ़ीस और बहनों की ज़रूरतें भी पूरी कीं। बहनों के कपड़े, किताबें, दवाई—सब कुछ उसकी कमाई से आता। 

समय के साथ बड़ा हुआ, नौकरी मिली तो सबसे पहले घर की जर्जर दीवारें बनवाईं, पक्का मकान खड़ा किया, गाड़ी ख़रीदी। घर का हर छोटा-बड़ा काम उसकी तनख़्वाह और पत्नी के सहयोग से चलता रहा। पत्नी का फ़िक्स्ड डिपाज़िट भी परिवार की ज़रूरतों में टूट गई। जब पत्नी की नौकरी लगी, तो उसका वेतन भी घर के ख़र्चों में लगा दिया गया। 

फिर एक दिन छोटा भाई भी नौकरी पर लग गया। बड़े भाई को लगा अब घर का बोझ आधा हो जाएगा। पर कुछ ही दिनों में छोटे के स्वभाव में बदलाव आने लगा। उसने गिनाना शुरू कर दिया—“मैंने इतना दिया, मैंने उतना किया।” अहंकार धीरे-धीरे उसके शब्दों और व्यवहार में उतर आया। 

बड़ों ने यह सब देखा, लेकिन चुप रहे। सास-ससुर ने छोटे को कभी नहीं टोका़। बात यहीं तक नहीं रही—गालियाँ देना, अपमानजनक बातें कहना आम हो गया। शादी के बाद तो हालात और बिगड़े। एक दिन छोटा भाई, उसी बड़े भाई का गला पकड़ चुका था, जिसने बचपन से उसे अपने कंधों पर बिठाकर रखा था। 

बड़े भाई ने कुछ नहीं कहा। वह बस चुप रहा। 

उसके मन में यही चल रहा था—

“सालों का साथ, त्याग और प्रेम . . . सब कुछ सिर्फ़ दस दिनों के अहम में हार गया।”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

दोहे

शोध निबन्ध

सामाजिक आलेख

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं