दिवाली का बदला स्वरूप
आलेख | सामाजिक आलेख प्रियंका सौरभ15 Nov 2023 (अंक: 241, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
दिवाली के शुभ अवसर पर हमारे देश में रोशनी, मिठाइयाँ, सुख-समृद्धि और सौभाग्य की बात करने की परंपरा है लेकिन विडंबना ये है कि आज के दौर में दिवाली के मायने पूरी तरह बदल गये हैं। दिवाली का बदला स्वरूप अब ख़ुशियों के बजाय प्रदूषण और जाम की चिंता लेकर आता है। दिवाली की सांस्कृतिक परंपराएँ लुप्त नहीं हुई हैं बल्कि आधुनिक संवेदनाओं के अनुरूप ढल गई हैं। इसमें सांस्कृतिक जड़ों और समकालीन सौंदर्यशास्त्र का एक आकर्षक मिश्रण है।
—प्रियंका सौरभ
पुराने दिनों में, दिवाली के दौरान उपहार देने का मतलब घर में बनी मिठाइयाँ और सद्भावना के साधारण प्रतीक बाँटना था। आज उपहार देने की कला ने एक ग्लैमरस अवतार ले लिया है। पारंपरिक मिठाई और दीयों के साथ-साथ, आपको बढ़िया वाइन, लक्ज़री चॉकलेट और हाई-एंड गैजेट जैसे आधुनिक उपहार भी मिलेंगे। शराब, जो एक समय एक असामान्य उपहार था, ने पारंपरिक प्रसाद के साथ-साथ अपना स्थान बना लिया है। दिवाली परंपरा और इतिहास में गहराई से निहित है, यह कई कारणों से समकालीन भारत और दुनिया भर में भारतीय प्रवासियों के बीच अत्यधिक प्रासंगिक बनी हुई है। दिवाली लाखों लोगों, विशेषकर अपने देश से दूर रहने वाले लोगों के लिए सांस्कृतिक पहचान और विरासत की याद दिलाने का काम करती है। यह उनकी जड़ों से जुड़ाव बनाए रखने में मदद करता है। हिंदू, जैन, सिख और बौद्धों के लिए, दिवाली धार्मिक महत्त्व रखती है और प्रार्थना, चिंतन और देवताओं से आशीर्वाद लेने का समय है।
दिवाली परिवारों, पड़ोसियों और दोस्तों के बीच समुदाय और जुड़ाव की भावना को बढ़ावा देती है जो जश्न मनाने के लिए एक साथ आते हैं। यह एकता और सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है। दिवाली एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक घटना है, जिसमें उपहार, कपड़े और उत्सव के खाद्य पदार्थों पर उपभोक्ता ख़र्च बढ़ता है। इसका खुदरा और पर्यटन सहित विभिन्न उद्योगों पर आर्थिक प्रभाव भी पड़ता है। दिवाली दुनिया भर में भारतीय समुदायों द्वारा मनाई जाती है, जिससे यह एक वैश्विक त्योहार बन जाता है जो सीमाओं और संस्कृतियों से परे है। इसे कई देशों में मान्यता प्राप्त है और मनाया जाता है। पुराने दिनों में, त्योहार देवताओं से आशीर्वाद लेने, अपने कार्यों पर विचार करने और अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं के माध्यम से पारिवारिक संबंधों को मज़बूत करने का समय था। आज, आप देखेंगे कि दिवाली में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। जबकि आध्यात्मिक सार बना हुआ है, यह त्योहार एक जीवंत, समकालीन उत्सव के रूप में विकसित हुआ है। आज, यह कॉकटेल की ख़ुश्बू, संगीत की झनकार और पार्टियों की जीवंतता के बारे में है।
लोगों ने अपना ध्यान धार्मिक अनुष्ठान की गंभीरता से हटाकर सामाजिक समारोहों की मौज-मस्ती पर केंद्रित कर दिया है। नृत्य, संगीत और हँसी-मज़ाक के साथ दिवाली पार्टियाँ अब एक प्रमुख विशेषता बन गई हैं। दिवाली की सांस्कृतिक परंपराएँ लुप्त नहीं हुई हैं बल्कि आधुनिक संवेदनाओं के अनुरूप ढल गई हैं। इसमें सांस्कृतिक जड़ों और समकालीन सौंदर्यशास्त्र का एक आकर्षक मिश्रण है। पुराने दिनों में, दिवाली के दौरान उपहार देने का मतलब घर में बनी मिठाइयाँ और सद्भावना के साधारण प्रतीक बाँटना था। आज उपहार देने की कला ने एक ग्लैमरस अवतार ले लिया है। पारंपरिक मिठाई और दीयों के साथ-साथ, आपको बढ़िया वाइन, लक्ज़री चॉकलेट और हाई-एंड गैजेट जैसे आधुनिक उपहार भी मिलेंगे। शराब, जो एक समय एक असामान्य उपहार था, ने पारंपरिक प्रसाद के साथ-साथ अपना स्थान बना लिया है। हाल के वर्षों में, दिवाली के दौरान पटाखों के पर्यावरणीय प्रभाव और प्रदूषण के बारे में जागरूकता बढ़ी है।
इससे पर्यावरण-अनुकूल और शोर-मुक्त समारोहों को बढ़ावा देने की पहल हुई है। आधुनिक दिवाली उत्सव में पर्यावरण संबंधी चिंताओं के प्रति बढ़ती जागरूकता भी शामिल है। अतीत में, पटाखे आम थे, और रात का आकाश रंगीन प्रदर्शनों से जगमगा उठता था। अब, पर्यावरण-अनुकूल उत्सवों की ओर बदलाव हो रहा है, जिसमें कई लोग वायु और ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए मूक या कम उत्सर्जन वाली आतिशबाज़ी का चयन कर रहे हैं, या यहाँ तक कि उनसे पूरी तरह परहेज़ कर रहे हैं। देखे तो दिल्ली के प्रदूषण को लेकर कई सरकारी संस्थाओं के रिपोर्ट में कहीं पर भी पटाखे को लेकर साधारण उल्लेख तक नहीं है। दिल्ली, आईआईटी, कानपुर आईआईटी, टिहरी के अलग-अलग रिपोर्ट में प्रदूषण के मुख्य कारण और उनका अनुपात का रिपोर्ट आप को एक गूगल सर्च में मिल जाएगा। पटाखे तो बहाना है, हिंदू निशाना है। हिंदू संस्कृति निशाने पर है।
हिंदुओं के विभिन्न उत्सव एवं परंपराओं को पहले ही निशाना बनाया गया है। हिंदुस्तान के विभिन्न महानगरों और राज्यों में पटाखों प्रतिबंध के लिए जो लोग आगे आ रहे हैं उसमें ग़ैर हिंदुओं का याचिकाकर्ता होना। जिन संस्थाओं ने पटाखे का विरोध किया है वह विदेशी फ़ंडिंग लेने वाली हैं। विशेष बात यह है कि उन देशों में पटाखों पर बैन नहीं हैं। सरकारी संस्थाओं के रिपोर्ट में प्रदूषण के लिए आतिशबाज़ी ज़िम्मेदार नहीं है, पर मीडिया रिपोर्ट में है। मतलब यह रिपोर्ट प्रभावित है। देश में वायु प्रदूषण को लेकर चर्चा २०१० से ज़्यादा होने लगी तभी से मार्केट में एअर प्यूरिफ़ायर्स का बड़े पैमाने पर बिक्री के लिए उपलब्ध होना क्या दर्शाता हैं? इसलिए लापरवाह सिस्टम के सामने देश का आम इंसान लाचार और बेबस नज़र आता है। आधुनिक दौर में दिवाली के त्योहार के साथ पटाखों का गहरा रिश्ता है। हालाँकि पटाखों से ज़्यादा ताक़त दीयों में होती है। क्योंकि दीयों की रोशनी देर तक बनी रहती है . . . और इनसे प्रदूषण भी नहीं होता।
आधुनिक दिवाली एक गतिशील उत्सव है जो पुरानी दुनिया के आकर्षण को समकालीन संवेदनाओं के साथ संतुलित करता है। यह त्योहार के सार को जीवित रखते हुए लोगों की बदलती जीवनशैली और प्राथमिकताओं को दर्शाता है-अँधेरे पर प्रकाश की विजय, बुराई पर अच्छाई और एकजुटता की स्थायी भावना जो दिवाली के मौसम को परिभाषित करती है। दिवाली, रोशनी का त्योहार, भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता का सार समाहित करता है। इसकी गहरी जड़ें जमा चुकी परम्पराएँ, पौराणिक उत्पत्ति और स्थायी प्रतीकवाद भौगोलिक सीमाओं को पार करते हुए सभी पृष्ठभूमि के लोगों के बीच गूँजता रहता है। दिवाली सिर्फ़ एक त्योहार नहीं है; यह प्रकाश, ज्ञान, एकता और बुराई पर अच्छाई की विजय का उत्सव है। यह हमें हमारे जीवन में आंतरिक रोशनी, करुणा और एकजुटता के महत्त्व की याद दिलाता है। जैसे-जैसे हर साल दिवाली नज़दीक आती है, यह अपने साथ आशा, ख़ुशी और सभी के लिए एक उज्जवल भविष्य का वादा लेकर आती है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध!!
सामाजिक आलेख | डॉ. सत्यवान सौरभ(बुद्ध का अभ्यास कहता है चरम तरीक़ों से बचें…
अध्यात्म और विज्ञान के अंतरंग सम्बन्ध
सामाजिक आलेख | डॉ. सुशील कुमार शर्मावैज्ञानिक दृष्टिकोण कल्पनाशीलता एवं अंतर्ज्ञान…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
काम की बात
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
- जीवन की ख़ुशहाली और अखंड सुहाग का पर्व ‘गणगौर’
- दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
- नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
- फीके पड़ते होली के रंग
- भाई-बहन के प्यार, जुड़ाव और एकजुटता का त्यौहार भाई दूज
- रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे संत रविदास
- समझिये धागों से बँधे ‘रक्षा बंधन’ के मायने
- सौंदर्य और प्रेम का उत्सव है हरियाली तीज
- हनुमान जी—साहस, शौर्य और समर्पण के प्रतीक
स्वास्थ्य
सामाजिक आलेख
- अयोध्या का ‘नया अध्याय’: आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण
- क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे?
- क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
- खिलौनों की दुनिया के वो मिट्टी के घर याद आते हैं
- खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
- जलते हैं केवल पुतले, रावण बढ़ते जा रहे?
- जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
- टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव
- दिवाली का बदला स्वरूप
- दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी
- नया साल, नई उम्मीदें, नए सपने, नए लक्ष्य!
- नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते हैं भूल
- पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
- पृथ्वी की रक्षा एक दिवास्वप्न नहीं बल्कि एक वास्तविकता होनी चाहिए
- पृथ्वी हर आदमी की ज़रूरत को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं
- बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की ज़रूरत
- महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में बाधाएँ
- मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है
- वायु प्रदूषण से लड़खड़ाता स्वास्थ्य
- समय न ठहरा है कभी, रुके न इसके पाँव . . .
- स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
दोहे
चिन्तन
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं