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क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे? 

'द कश्मीर फ़ाइल्स' 1990 में कश्मीरी पंडितों द्वारा कश्मीर विद्रोह के दौरान सहे गए क्रूर कष्टों की सच्ची कहानी बताती है। यह एक सच्ची कहानी है, जो कश्मीरी पंडित समुदाय के कश्मीर नरसंहार की पहली पीढ़ी के पीड़ितों के वीडियो साक्षात्कार पर आधारित है। ये ऐसी कहानियाँ हैं जिन्हें बताने की ज़रूरत है जो कई अलगाववादियों के लिए सुनना कठिन हो सकती हैं। इसके बारे में एक पल के लिए सोचें, अगर कश्मीरी हिंदुओं पर इस तरह के क्रूर अत्याचार हुए हैं, तो क्या आप मानवता की ख़ातिर अपने राजनीतिक झुकाव को अलग नहीं रखेंगे और न्याय के अधिकार में पहली पीढ़ी के पीड़ितों के लिए न्याय की उम्मीद नहीं करेंगे? यह घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू पंडितों की रक्षा करने के अपने दायित्व में राज्य की ओर से एक बड़ी विफलता थी। 

इसने भारत को एक नरम राज्य होने का एक निश्चित संकेत दिया और जो यक़ीनन अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा देने और आतंकवाद को प्रोत्साहित करने के कारणों में से एक है। द कश्मीर फ़ाइल्स आपकी आँखें उन कहानियों के लिए खोलती है जो अनकही थीं—अलगाववादी सहानुभूति रखने वाले राजनेताओं, धार्मिक अतिवाद का प्रभाव, एक प्रेस जिसने ज़मीन पर कठोर वास्तविकता को नज़रअंदाज कर दिया और दिखाया कि कैसे किसी तरह के क्रांतिकारियों के रूप में आतंकवादियों का महिमामंडन किया गया था। और आपको सही, वास्तविक तथ्य दिखता है कि कैसे, इस अधीनता और रक्तपात के बावजूद, कश्मीरी पंडितों ने हथियार नहीं उठाए। यह दिल को छू लेने वाला है क्योंकि फ़िल्म उस तथ्य को उजागर करने का एक विशिष्ट प्रयास करती है। 

मैंने एक थिएटर में “द कश्मीर फ़ाइल्स“ देखी। मैंने अपने आँसू रोक लिए, लेकिन मेरा दिल भारी लग रहा था जैसे कि “साँस नहीं ले रहा।” फ़िल्म ख़त्म होने के बाद मुझे थिएटर में कश्मीरी पीड़ितों के दो सेटों का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। एक मेरे सामने बैठी वरिष्ठ 'क' महिला ज़ोर-ज़ोर से रोती रही। लोग इकट्ठे हो गए। मुझे बताया गया कि उसके ससुर की आँखें निकाल ली गई थीं और वह उन लोगों में से एक थे जिन्हें पेड़ के तने पर लटका दिया गया था; दो, मेरे बग़ल में बैठी दो बुज़ुर्ग महिलाएँ डरी हुई थीं। उसने मुझे बताया कि उसके चाचा की बहू 'ख़ून से लथपथ' दृश्य की शिकार थी। इससे मुझे कभी-कभी शर्म आती है, हमारी कोमलता और सहनशीलता पर, जिसे “आध्यात्मिक हिंदू“ के बैनर तले परिभाषित किया गया है। अब सभी भारतीयों को ये “सत्य“ अवश्य देखना चाहिए। आपको “कश्मीरी दर्द“ और निर्दोष पीड़ितों की पीड़ा को महसूस कराया गया है। 

कश्मीर फ़ाइल्स में 19 जनवरी एक धोखे, मजबूरियों और दर्द के दिन के तौर पर सामने आया है, आना भी चाहिए; सबके सामने कि कैसे आपके अपने लोग आपको अपने घरों से भाग जाने को मजबूर करते हैं। सरकार भी आपका साथ नहीं देती। यही नहीं आपके दर्द को इतिहास के पन्नों से भुला दिया जाता है। ये सोचकर यक़ीन नहीं होता कि ये सब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे भारत देश में हुआ है। क्या भारत में हुए ऐसे ही अन्य अत्याचारों को भी कश्मीर फ़ाइल्स के बहाने सामने नहीं लाना चाहिए? पीएम नरेंद्र मोदी बीजेपी संसदीय दल की बैठक में फ़िल्म 'द कश्मीर फ़ाइल्स' पर चर्चा करते नज़र आए। पीएम मोदी ने कहा कि कश्मीर फ़ाइल्स जैसी फ़िल्में बनती रहनी चाहिए। ऐसा होना एक अच्छा और शुभ संकेत है। 

बात कई बार उठती है लेकिन दबा दी जाती है जैसे कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को सेक्युलर रहने और समरसता के नाम पर बहा दिया गया। ये तो सच है कि अल्पसंख्यक के नाम पर बहुत ख़राब व्यवहार उनके साथ होता है। और ये भी सच है कि कश्मीर के हिन्दुओं के साथ तो सारी हदें पार की गयी। इससे ये बात साफ़ हुई कि हमारा सिस्टम ख़ुद से ही डरता है, काँपता है। तभी हम अपने लोगों को बचा नहीं पाए। हद तो तब हो गयी है अब हम ये मानने को भी तैयार नहीं कि कश्मीरी पंडितों के साथ बुरा हुआ। कारण ये कि हमारे मन में डर है कि देश भर के मुसलामानों को बहुसंख्यक हिन्दू तंग न कर पाएँ। पर क्या ये सॉफ़्ट तरीक़ा सही है? क्यों ऐसा नहीं हो पा रहा कि हम सबको न्याय की बात को तिलांजलि दे बैठे? क्या कभी बहुसंख्यक पीड़ित और अल्पसंख्यक ग़लत नहीं हो सकता? सोचना होगा। 

इतिहास को देखें तो ऐसा भी नहीं है कि ये दोनों वर्ग एक दूसरे के हम दर्द हों, साथ-साथ हों। अगर ऐसा होता तो सारी बातें वहीं ख़त्म हो जातीं और एक-दूसरे का दुःख बाँट लेते। अब हमें ये सोचना कि कैसे हम बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे और अपने लोकल मुद्दों पर ध्यान देकर आपसी प्रेम-प्यार की फ़सल बो पाएँगे। मेरी भावनाओं का का ज्वार कहता है कि आख़िर क्यों 100 करोड़ भारतीय डरे हुए और छिपते हैं, जबकि हमारे भगवान पूरी तरह से सशस्त्र रहते हैं; त्रिशूल, गदा, धनुष। तीर, तीसरी आँख, सर्वोच्च शक्तियाँ, और क्या नहीं? नेता, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, राइटर्स, जूरी, मीडिया, पुलिस, मिलिट्री, सिटिजन ऐसा लगता है कि उन्होंने “कठिन समस्या समाधान“ रवैये से निपटने के लिए अपनी पेशेवर ज़िम्मेदारी, दायित्वों और योगदान को छोड़ दिया है। 

जागो भारत। बीते युग के क़ानूनों को बदलें। लंका दहन, महाभारत, युद्ध और जेल नहीं होते, यदि 'राम राज्य' केवल “सोचने, योजना बनाने, बुरे दिमाग़ वाले लोगों के साथ बात करने“ के माध्यम से सम्भव होता। सही समय पर उठाया गया छोटा क़दम भविष्य की बड़ी समस्याओं से बचाता है। 

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