अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कुत्ते को राजा, इंसान को भिखारी!

 

कुत्ते को गाड़ी में बैठा दिया, 
बापू को धूप में छोड़ दिया। 
पंखा चला कुत्ते की ख़ातिर, 
माँ को पसीने में तोड़ दिया। 
 
कुर्सी पर बैठा पालतू राजा, 
घर में इंसान बने मज़दूर। 
बिल्ली के दूध में बादाम, 
बच्चे को रोटी अधपकी भरपूर। 
 
वो इंसान जो बोल न पाए, 
प्यारा लगे, दिल छू जाए। 
जो अधिकार माँगे, सच बोले, 
वो बुरा लगे, दूरी बनाए। 
 
तोते से कहते हैं “जानू”, 
बेटे को सुनाते हैं ताने। 
पक्षियों को देते हैं प्रेमपत्र, 
बीवी की चिट्ठी फाड़ बहाने। 
 
“स्नानगृह” बना है कुत्ते का, 
दवा नहीं है दादी के पास। 
बर्थडे केक है बिल्लियों का, 
भूखा बच्चा देखे उदास। 
 
करुणा अब कपड़ों की है, 
जो बोल न सके, उसी पर हो। 
जो जवाब दे दे, स्वाभिमानी, 
वो घर से बाहर, उसके लिए रो? 
 
हर गली में डॉग शो चलता, 
हर महल्ले में पंछी महोत्सव। 
इंसानों का मेला उजड़ रहा, 
ये नया ‘सभ्यता-उत्सव’। 
 
करुणा हो सब जीवों के लिए, 
यह हम भी मानें बारम्बार। 
पर इंसान से नफ़रत कर के, 
पशु-प्रेम का क्या सत्कार? 
 
माँ की दवा, बाप का चश्मा, 
बच्चे की कॉपी, भूखे की थाली—
इनसे बड़ा हो जाए अगर
कुत्ते का स्वेटर, तो हाय! बेहाली! 
 
अब पोस्टर लगे हैं दीवारों पर—
“कुत्ते को मत सताना जी!”
और चौराहे पर आदमी भूखा, 
“रोटी दो!”— चुप है दुनिया जी। 
 
रिश्ते टूटे, संवाद बिछुड़े, 
आँगन में अब चुप्पी है। 
कुत्ते की दुम में घंटी बँधे, 
घर-घर में यह नई विपत्ति है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँगूठे की व्यथा
|

  पहाड़ करे पहाड़ी से सतत मधुर प्रेमालाप, …

अचार पे विचार
|

  पन्नों को रँगते-रँगते आया एक विचार, …

अतिथि
|

महीने की थी अन्तिम तिथि,  घर में आए…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कविता

कहानी

किशोर साहित्य कविता

दोहे

लघुकथा

सांस्कृतिक आलेख

हास्य-व्यंग्य कविता

शोध निबन्ध

काम की बात

स्वास्थ्य

ऐतिहासिक

कार्यक्रम रिपोर्ट

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं