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जब फ़ोन और फ़ीलिंग्स मौन हो जाएँ

 

जब फ़ोन और फ़ीलिंग्स
दोनों मौन हो जाएँ, 
तब आत्मा का सूना आँगन
आँखों की ओस से भर जाता है। 
 
ज्ञान की दीवारें
कितनी भी ऊँची हों, 
वे उस रिक्ति को
कभी नहीं भर पातीं
जो हृदय में किसी अपने के
न होने से जन्म लेती है। 
 
उस घड़ी चाहिए—
न शास्त्रों का बोझ, 
न उपदेशों का प्रवाह, 
बस एक शांत स्पर्श, 
बस एक जीवित आहट, 
जो यह कह सके—
“मैं हूँ, 
तुम्हारे पास हूँ।”
 
किताबों के अक्षर
मन को बाँध नहीं पाते, 
शब्दों की गहराई
उस तन्हाई को चीर नहीं सकती, 
जहाँ आत्मा अपने ही
सन्नाटे में गूँजती है। 
 
वहाँ चाहिए एक धड़कन, 
जो साथ-साथ चले, 
एक मौन आँख
जो बिना बोले
सारे दुःख पढ़ ले। 
 
मनुष्य का सबसे बड़ा
ज्ञान यही है—
कि वह किसी और के लिए
सिर्फ़ “साथ” बन जाए। 
 
और जब दुनिया की
चमक-दमक थम जाए, 
जब सोशल मीडिया की
चहचहाहट बुझ जाए, 
जब इंसान अपनी ही
भावनाओं से कटकर
अकेला रह जाए—
तब सबसे बड़ा संबल
किसी अपने का हाथ होता है, 
जो अँधेरे में
दीपक की तरह जलता है। 
 
इसलिए, 
जब फ़ोन और फ़ीलिंग्स
साइलेंट हो जाएँ, 
तब ज्ञान की नहीं, 
साथ की आवश्यकता होती है। 
सिर्फ़ इतना कि कोई
हमारे भीतर के सन्नाटे को
अपनी उपस्थिति से भर दे। 

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