त्योहारों का सेल्फ़ी ड्रामा
आलेख | सामाजिक आलेख डॉ. प्रियंका सौरभ15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(त्योहार अब दिल से नहीं, डिस्प्ले से मनाए जाते हैं—हम अब त्योहारों से ज़्यादा अपनी तस्वीरें मना रहे हैं)
अब त्योहार पूजा, मिलन और आत्मिक उल्लास का नहीं, बल्कि ‘कंटेंट’ का मौसम बन गए हैं। दीपक की लौ से ज़्यादा रोशनी अब मोबाइल की फ़्लैश में दिखती है। भक्ति, व्रत और परंपराएँ अब फ़िल्टर और फ़्रेम में सिमट गई हैं। लोग ‘सेल्फ़ी विद गणेश’, ‘करवा चौथ वाइब्स’ और ‘भाई दूज मोमेंट्स’ जैसे टैग से उत्सव मनाते हैं। सच्ची आस्था और दिखावे के बीच की यह डिजिटल खाई हमारी आत्मा को धीरे-धीरे खोखला कर रही है। यह सवाल अब ज़रूरी है— क्या हम त्योहार मना रहे हैं या दिखा रहे हैं?
—डॉ. प्रियंका सौरभ
त्योहार हमारे समाज की आत्मा होते हैं—वह समय जब इंसान ईश्वर, प्रकृति और अपने संबंधों के प्रति आभार व्यक्त करता है। लेकिन अब हर त्योहार के साथ एक नया किरदार जुड़ गया है—मोबाइल कैमरा। जैसे ही दीपक जलता है, आरती की थाली घूमती है या राखी बँधती है, पहला सवाल यही होता है— “फोटो ली क्या?” पहले पूजा पूरी होती थी, फिर प्रसाद बाँटा जाता था; अब पहले स्टोरी लगती है, फिर पूजा होती है। यह वही भारत है जहाँ कभी ‘मन का उत्सव’ मनाया जाता था, आज वही ‘मीडिया का उत्सव’ बन गया है।
दीपावली अब दीपों की नहीं, सजावट की पोस्टों की रात है। घरों की सफ़ाई से ज़्यादा लोग कैमरे का कोण सुधारने में व्यस्त रहते हैं। माता लक्ष्मी की प्रतिमा की पूजा से पहले “बूमरैंग” बनता है, और पटाखों से पहले “कैप्शन” तय होता है— #दीवाली_की_वाइब्स #परिवार_का_प्यार। ऐसा लगता है मानो हर व्यक्ति का त्योहार सोशल मीडिया पर दिखना चाहिए, वरना वह अधूरा है। यह डिजिटल प्रतिस्पर्धा अब भक्ति से ज़्यादा ‘लाईक’ का खेल बन चुकी है।
करवा चौथ जैसे व्रतों का जो भाव था—प्रेम, समर्पण और आशीर्वाद—वह अब फोटो खिंचवाने और छूट वाले ऑफ़र में बँट गया है। “सेल्फ़ी विद सासू माँ”, “उपवास वाला चेहरा” और “चाँद के साथ तस्वीर” जैसी प्रवृत्तियाँ अब त्योहार की नई पहचान हैं। पहले चाँद देखने का रोमांच था, अब ‘क्लिक करने’ का जुनून है। एक ज़माना था जब महिलाएँ साड़ी पहनती थीं पूजा के भाव से; आज वही साड़ी ब्रांड को टैग करने का साधन बन गई है। त्योहार अब प्रेम का नहीं, प्रदर्शन का पर्व बन गया है।
होली भी अब रंगों का नहीं, रंगीन दिखावे का खेल है। पहले जो चेहरे रंगों में डूबे होते थे, अब वे फ़िल्टर में धुल चुके हैं। लोग अब एक-दूसरे को रंग लगाने से ज़्यादा डरते हैं कि “कपड़े ख़राब हो जाएँगे, फोटो में अच्छा नहीं लगूँगा।”
“सेल्फ़ी विद गुलाल” में रंग तो हैं, पर अपनापन नहीं। यह होली अब मन की नहीं, मेकअप की होली बन गई है।
ईद, क्रिसमस, नवरात्र—हर धर्म का उत्सव अब एक ही रंग में रँग गया है—डिजिटल दिखावे का रंग। मस्जिद या गिरजाघर के सामने मुस्कुराती तस्वीरें, थाली में सजे पकवानों के फोटो, और शीर्षक—“प्यार और शान्ति बाँट रहे हैं।” पर क्या सचमुच प्यार और शान्ति फैल रही है, या बस दिखावा? त्योहार अब इंसान को जोड़ने की बजाय, तुलना और प्रतिस्पर्धा का कारण बनते जा रहे हैं। “उसकी लाइटिंग ज़्यादा सुंदर”, “उसका मंडप बड़ा”, “उसके पास महँगी सजावट”— यह सब उस आत्मीयता को निगल गया है जो कभी परिवारों की पहचान थी।
यह सेल्फ़ी नाटक इतना गहरा हो चुका है कि अब भक्ति का भी अभिनय होता है। मंदिर में जाते ही लोग पहले फोन निकालते हैं, फिर हाथ जोड़ते हैं। आरती लाइव होती है, पर मन ऑफ़लाइन। दान सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है, ताकि दूसरों को पता चले कि ‘हम भी नेक हैं’। भक्ति निजी नहीं रही, सार्वजनिक प्रदर्शन बन गई है। आस्था अब आत्मा से नहीं, प्रसारण से चलती है।
मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह “डिजिटल आस्था” एक गहरी बेचैनी का परिणाम है। इंसान अब अपने हर अनुभव का प्रमाण सोशल मीडिया से चाहता है। उसे लगता है कि अगर कोई चीज़ कैमरे में नहीं आई तो वह हुई ही नहीं। यही कारण है कि अब त्योहारों में मुस्कान असली नहीं, अभ्यास की हुई होती है। बच्चे तक कैमरे के सामने “हैप्पी दिवाली” बोलना सीख चुके हैं। रिश्तों की गर्माहट अब कैमरे की ठंड में जम गई है।
त्योहारों का असली अर्थ था— रुकना, साँस लेना, जुड़ना।
अब अर्थ बदल गया है— सजना, पोस्ट करना, भूल जाना।
लोगों को यह भी याद नहीं रहता कि त्योहार का मूल कारण क्या था—बस इतना याद रहता है कि किस दिन क्या पोस्ट करना है। यह ‘सेल्फ़ी संस्कृति’ धीरे-धीरे उस आध्यात्मिक गहराई को खा रही है जो भारतीय समाज की पहचान थी।
अब त्योहार आत्मा का नहीं, “छवि’ का दर्पण बन गए हैं।
बाज़ार ने भी इस प्रवृत्ति को भुनाने में देर नहीं लगाई।
हर त्योहार से पहले ‘सेल्फ़ी पृष्ठभूमि’, ‘फोटो मंच’, ‘डिजिटल सजावट’ और ‘त्योहार संग्रह’ की बाढ़ आ जाती है।
पूजा की थाली से ज़्यादा महत्त्व अब पैकेजिंग का हो गया है। त्योहार अब आध्यात्मिक नहीं, ब्रांडेड अवसर बन चुके हैं। दीपावली अब “ऑनलाइन ख़रीदारी पर्व” है, नवरात्र “गरबा नाइट्स प्रायोजित कार्यक्रम” है, और होली “कलर ब्लास्ट आयोजन” बन चुकी है। जहाँ पहले त्योहार आत्मा को शुद्ध करते थे, अब वह जेब को ख़ाली कर देते हैं।
सोशल मीडिया पर दिखावे की इस होड़ ने समाज में एक अजीब-सी भावनात्मक दूरी पैदा कर दी है। लोगों को लगता है कि उन्होंने दूसरों की फोटो देखकर उनसे जुड़ाव बना लिया—जबकि असल में वह जुड़ाव एक भ्रम है। त्योहार जो कभी सबको साथ लाते थे, अब लोगों को अकेला कर रहे हैं। हर कोई अपने फोन में बंद है, दूसरे की मौजूदगी सिर्फ़ स्क्रीन पर है। “परिवार की फोटो” तो पूरी है, लेकिन परिवार बिखरा हुआ है।
यह सब लिखते हुए एक प्रश्न चुभता है— क्या हम ईश्वर से जुड़ रहे हैं या नेटवर्क सिगनल से? क्या हमें ख़ुशी मिल रही है या बस ‘प्रतिक्रिया’? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे त्योहार अब आत्मा से नहीं, कैमरे की चमक से रोशन हो रहे हैं?
त्योहारों का असली अर्थ तब लौटेगा जब हम कैमरा नीचे रखकर, किसी के चेहरे पर सच्ची मुस्कान देखेंगे।
जब दीया सिर्फ़ फोटो के लिए नहीं, अँधेरे के लिए जलाया जाएगा। जब करवा चौथ पर फोटो नहीं, साथ बैठकर एक-दूसरे की आँखों में सुकून ढूँढ़ा जाएगा। जब होली पर रंग लगाते वक़्त डर नहीं, अपनापन होगा। त्योहार तब लौटेंगे, जब हम दिखाना बंद करेंगे— और महसूस करना शुरू करेंगे।
त्योहारों का यह सेल्फ़ी ड्रामा तभी ख़त्म होगा जब इंसान अपने अंदर झाँककर यह कह सके— “मुझे किसी की लाईक नहीं चाहिए, मुझे बस अपने अपनों की सच्ची मुस्कान चाहिए।”
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